कौन कहता है ज़िंदगी मौत से हार जाती है ? २६ दिसंबर की शाम होते होते देश को एक दुखद समाचार से रूबरू होना पड़ा । पूर्व प्रधान मंत्री डॉ मनमोहन सिंह ९२ वर्ष की आयु में इस संसार को अचानक ही अलविदा कह गये और छोड़ गये पीछे अनेक लोगों की भीगी पलके , तेज़ी से आती गहरी साँसें और सोचने पर मजबूर मश्तिष्क । अनेक लोगों के शोक संदेश बह रहे थे । आज वर्षों से आलोचना कर रही वाणियों के शब्द भी निशब्द दिखायी दे रहे थे । मैं भी सोचने को विवश था कि क्या डॉ मन मोहन सिंह मृत्यु के सामने हार गये हैं ? मुझे नहीं लगता । जो शख़्स साधारण पृष्ठ भूमि से उठकर पूरा जीवन अपनी सादगी, मितव्यता के अर्थशास्त्र और सहनशीलता के साथ अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिये संघर्ष करता रहा हो , जिसने अपने कठोर आलोचकों को भी अपना सम्मान करने के लिए बाध्य कर दिया हों। न सत्ता का नशा और न मनमानी चलने न चलने की चिंता , बस अपने कर्तव्य पथ पर बढ़ते रहने की प्रतिज्ञा , क्या ऐसा कोई व्यक्ति हार सकता है? कदापि नहीं । उसे तो कर्तव्य पथ का महान शहीद कहना पड़ेगा । ज़िंदगी कभी हारती नहीं , मृत्यु कभी जीतती नहीं बस मंच और कलाकार बदल जाते हैं । मृत्यु एक ज़िंदगी का उद्देश्य पूर्ण हो जाने पर उसे लेकर जाती है तो ज़िंदगी तुरंत उसकी जगह दूसरी ज़िंदगी से उसका प्रति स्थापन कर देती है। हारती है बुराई , आलोचना और दुश्मनी । ज़िंदगी अपना काम पूरा कर निकल लेती है किसी दूसरे काम के लिए और हारी हुई बुराई , आलोचना, कटुता अपना सर पीटकर रह जाती हैं । एक झटके में सारी आलोचना, बुराई और कटुता हार जाती है , समाप्त हो जाती है और दिल से सच्चे मीठे बोल निकलने लगते हैं। व्यक्ति को एक ही क्षण में अपना अंतिम हश्र दिखायी देने लगता है।पलकें झुक जाती हैं, हाथ अनायास ही आपस में जुड़ जाते हैं और मस्तक अनायास ही नमन करने लगता है। उस क्षण ही व्यक्ति को ज़िंदगी और मौत का अंतर समझ आ जाता है। डॉ मन मोहन सिंह का जीवन देश के लिए बहुत बड़ा उदाहरण बनकर आया । एक अर्थशास्त्री से राजनीति में अचानक प्रवेश और उस पर देश की लगभग डूब चुकी आर्थिक स्थिति को नई दिशा देकर उभारने का चैलेंज । तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री पी वी नरसिंहाराव ने हीरे की पहचान न की होती तो शायद भारत में आर्थिक सुधारों की पहल ही न होती । जरा सोचिए कितना कठिन चैलेंज था ? जरा सी असफलता नई नई मिली राजनीतिक ज़िंदगी को काल में घसीट सकती थी लेकिन वित्त मंत्री के रूप में डॉ मनमोहन सिंह ने धैर्य और लगन के साथ देश की आर्थिक स्थिति को पटरी पर ला दिया । २००४ में प्रधान मंत्री बनने के बाद अमेरिका से परमाणु समझौता और अनेक क्रांतिकारी कदम और सफलताएँ उनकी झोली में आयी । उनके कार्यकाल के अंतिम तीन वर्षों को देखे तो उनके मंत्रीमंडलीय साथियों और वृहद् हस्त के कारण भ्रष्टाचार ने सभी सीमाएँ लांघ दी । सरकार भ्रष्टाचार के दागों से छलनी थी फिर भी यह योद्धा निष्कलंक , निर्भीक और शांत रूप से अपने कर्तव्य पथ पर चलता रहा। कोई आक्षेप, आरोप उनपर व्यक्तिगत रूप से नहीं लगा। वो जानते थे कि कर्मफल का सिद्धांत क्या होता है इसलिए हमेशा स्वयं में आश्वस्त रहते थे। विडंबना यही है कि रोते बिलखते चेहरे , अश्रु बहती आँखें और स्मरण करते मन बस कुछ घंटों , दिनों अधिकतम तेरह दिन सामने खड़े सत्य को एक स्नान के बाद भूल जाते हैं और फिर वही मिथ्या तत्वों से भरी ज़िंदगी शुरू हो जाती है। फिर एक दिन किसी अंतिम संस्कार में जाना होता है, फिर ज़िंदगी की सच्चाई से सामना होता है बस यूँ ही ज़िंदगी और मौत की हार जीत का सिलसिला ज़री रहता है।कुछ ज़िंदगियाँ विशेष रूप से विशिष्ट उद्देश्य के लिए निश्चित अवधि हेतु हमारे बीच आती हैं और पीछे एक इतिहास छोड़कर चली जाती हैं किसी दूसरे उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए । ऐसी ज़िंदगी अमर हो जाती हैं और छोड़ जाती हैं हमारे लिये अनुकरणीय शिक्षा और कर्म ।काश कि हम लोग लेश मात्र भी उसका अनुकरण कर लें तो देश में डॉ अब्दुल कलाम आज़ाद , रतन टाटा, अटल बिहारी बाजपेयी , पंडित दीन दयाल उपाध्याय, लाल बहादुर शास्त्री और डॉ मनमोहन सिंह जैसी अमर ज़िंदगियाँ हमेशा हमारे बीच पैदा होती रहेंगी।
नमन श्रद्धांजलि ।
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