कई महीनों से उत्तराखंड में मूल निवास और भू क़ानून की चर्चा ज़ोरों पर है। काफ़ी पूछताछ और चर्चा के बाद भी इसके ओचित्य को समझने में मुश्किल हो रही है। हम आज़ादी से पहले भी भारतवासी थे यानी भारत के ही मूल निवासी और आज भी हमारी पहचान वही है। सांस्कृतिक रीतिरिवाजों से अवश्य हमें क्षेत्र के नाम पर पुकारा जाता था जिससे हमारी भाषा, रहनसहन, संस्कृति और वेशभूषा का आभास होता था जो आज भी प्रचलित है लेकिन में नहीं समझता कि हमारी इस दूसरी पहचान का हमारे किसी अधिकार से कोई सरोकार था। पूर्व में हमारी प्रथाएँ ही हमारा क़ानून होती थी इसलिए क्षेत्र के हिसाब से कुछ क़ानून बदलते जाते थे ।लेकिन इस दूसरी पहचान को बनाये रखने का अर्थ है अपनी पुरानी सांस्कृतिक धरोहरों को बचाये रखना।
यदि इसी उद्देश्य को लेकर किसी माँग पर चर्चा की जाय तो यह कहीं से भी असंगत नहीं लगता किंतु हमारी मूल पहचान भारतीय है जिसे विभिन्न टुकड़ों में बाँटा जाना भी न्यायोचित नहीं है। किसी भी वर्ग अथवा क्षेत्र द्वारा अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाये रखना उनके अपने पूर्वजों के प्रति विश्वास और सम्मान को दर्शाता है लेकिन क्या कोई व्यक्ति प्राकृतिक विकास जिसे एवोल्यूशन भी कहा जाता है, की गति को रोक सकता है शायद नहीं , हाँ कुछ पर्यासों से गति बढ़ /घट अवश्य सकती है। जैसे मानव द्वारा निरंतर अनुषंधान करने, नई परिष्ठितियों से निपटने के लिए परिवर्तित होने जैसी क्रियायें हो सकती है।प्रकर्ती में परिवर्तन अपरिहार्य है जो स्वतः स्फूर्तिक है, जिसे रोका नहीं जा सकता।
स्पष्ट है कि धीरे धीरे स्वयमेव परिवर्तन आ रहा है कुछ मानव जनित तो कुछ प्राकर्तिक रूप से। अपने उत्तराखण्ड को ही ले लीजिए अधिक नहीं सिर्फ़ आज़ादी के ७५ वर्षों के पन्ने पलट कर देखिए कितना कठिन रहा होगा पहाड़ का जीवन? सुविधा के नाम पर आसमान सी खामोशी । शिक्षा के नाम पर कोई उच्च संस्थान नहीं। स्वास्थ्य के नाम पर व्यक्ति बीमार हो जाये तो उपरवाले प्रभु और स्थानीय देवी देवताओं के भरोसे ज़िंदगी ।सिर पर छत के लाले और जीने के लिए जंगल में कड़ी मेहनत, खाद्यान्न की कमी लेकिन धीरे धीरे मेहनत और विश्वास के सहारे बहुत कुछ बदल गया । पहाड़ से युवकों ने बाहर जाकर अवसर ढूँढना शुरू किए तो ख़ुशहाली का दामन हाथ लगा । आज अनगिनत उदाहरण हैं जो पहाड़ की उन्नति और विकास की कहानी बताने के लिए काफ़ी हैं।
मूल निवास का प्रश्न उठना तो निश्चित रूप से ओचितिय हीन है। मूल निवास किसी नागरिक का बदला नहीं जा सकता। यह उसके जन्म से जुड़ा मुद्दा है। भारत में जो जहां का मूल निवासी था वहीं का मूल निवासी है। किसी का मूल निवास बदला ही नहीं गया तो उसे लागू करने का प्रश्न ही कहाँ उठता है। कौन कहता है कि जन्म से इस पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले यहाँ के मूल निवासी नहीं हैं जिसने यहाँ जन्म लिया , शिक्षा और रोज़गार लिया , यहीं पर निवास किया उसे कहाँ का मूल निवासी कहा जाएगा । इसके साथ ही यहाँ संपत्ति लेकर निश्चित समय से निवास कर रहे नागरिक को यहाँ का स्थायी निवासी नहीं तो क्या कहा जाएगा ? विदेश में बसने पर तो नागरिकता तक चली जाती है फिर भी वह भारत का मूल निवासी ही कहलाता है। और उससे फ़र्क़ भी क्या पड़ता है? जो जहां रहेगा , वहाँ का नागरिक कहलाएगा और सरकार तदनुसार उसकी व्यवस्था करेगी । आजतक किसी ने सभी प्रकार की आत्मनिर्भरता हासिल नहीं की । अमेरिका , रुस और चीन ने भी नहीं। इसलिए किसी प्रकार की अलगाववादी सोच का कोई महत्व नहीं हो सकता । देहरादून में पढ़े दूसरे राज्य के विद्यार्थियों को उत्तराखंड में मान्यता नहीं मिलेगी तो जॉइन आएगा? उत्तराखंडी भाई बहनों को दूसरे राज्यों में रोज़गार नहीं मिलेगा तो कोई भारत की बात करेगा?
हाँ एक बार अवश्य सच है कि किसी भी क्षेत्र की संपदाओं, अवसरों पर पहला अधिकार वहाँ के स्थानीय निवासियों का होता है। योग्यता अनुसार उन्हें उनका अधिकार मिलना चाहिए। लेकिन इसका तत्पर्य यह बिलकुल नहीं कि दूर दराज के योग्य व्यक्तियों को अवसरों से दूर रखा ज़ाय। कम या अधिक हो सकता है लेकिन उचित सामंजस्य तो रखना ही पड़ेगा।यह संभव ही नहीं है। जरा मश्तिष्क पर ज़ोर डालकर देखिए यदि सभी राज्य ऐसा सोच लें तो लगभग सभी राज्य के पास योग्यता अथवा अवसरों की कमी हो जाएगी। अमेरिका जैसे संपन्न देश को भी विदेशियों को अवसर देने पड़ते हैं। सरकार को चाहिए कि अधिकतम अवसर स्थानीय को मिले लेकिन योग्यता के आधार पर । देश में मिले सांविधानिक अधिकार के अनुसार देश में कहीं भी रहने, रोज़गार करने को चुनौती नहीं दी जा सकती। जरा सोचिए यदि देश के सभी राज्यों में धारा ३७०, ३५a लागू कर दी जाएँ तो क्या होगा ? देश अगले दिन छोटे छोटे देशों में बँटकर कमजोर हो जाएगा।
 अब बात भू क़ानून की करते हैं । यह राज्य का विषय है जिसके अंतर्गत सभी राज्य सरकारें अपनी भूमि का प्रबंधन भू क़ानून के लिये करती हैं।राज्य को खेती, बाग़बानी , उत्पादन , निवास, सड़कें, नहरों इत्यादि के लिए भूमि उपयोग की व्यवस्था करनी होती है। ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहां भूमि की ख़रीद बिक्री न होती हो। कुछ स्थान अलग अलग दृष्टिकोण से अधिक महत्वपूर्ण हो जाते हैं जहां बसने और कारोबार करने के इच्छुक नागरिकों विशेष तौर पर व्यापारियों की संख्या अधिक रहती है।उत्तराखण्ड नया राज्य बना तो सरकार को यहाँ के विकास की चिंता हुई। बहुत सी योजनाएँ बनी जिसके कारण उत्तराखण्ड भूमि क्रय का आकर्षण केंद्र बन गया। भू क़ानून भी बना जिससे भूमि का उचित प्रबंधन किया जा सके। किसी भी स्थान पर जब विकास होता है, भूमि की क़ीमतें बढ़ने लगती हैं इसलिए ख़रीद बिक्री भी अधिक होती है। हर कोई लाभ कमाने की इच्छा रखने लगता है। ऐसा ही उत्तराखंड में घटित हुआ। भूमि आवास और वाणिजियक गतिविधियों के लिए ख़रीदी जाने लगी। जब लाभ की स्थिति होती है तो विशेष रूप से कम भूमि के स्वामी अपनी भूमि की बिक्री कर नये अवसरों की तलाश में पलायन करने लगते हैं।जब प्रदेश में क्रषिभूमि का खेत्रफल घटने लगा तो यहाँ की जनता की आँखें खुली और पुनः भू क़ानून के पुनरीक्षण की माँग बढ़ने लगी।
माँग तो उचित है लेकिन भू क़ानून जिस रूप में माँगा जा रहा है वह थोड़ा अटपटा ज़रूर लगता है। किसी भी विक्रेता को किसी विशेष वर्ग के व्यक्ति को बेचने के लिए बाध्य करना तर्कसंगत नहीं लगता ।न ही इससे भूमि को विक्रय से रोका जा सकता है।बल्कि इससे चंद स्थानीय भू माफियाओं की चाँदी हो जाने की संभावना बढ़ जाती है। जहां तक दूसरे प्रदेशों के नागरिकों द्वारा भूमि ख़रीदने का प्रश्न है तो उन्होंने अधिक दाम देकर भूमि ख़रीद की है और भूमि उत्तराखण्ड में ही रही है। इसके साथ ही उत्तराखंड निवासियों ने भी दूसरे राज्यों में भूमि ख़रीद की है जिसपर कोई प्रतिबंध नहीं है।सरकार को चाहिए कि भूमि की अंधा धुँध बिक्री को नियंत्रित करने के लिए कुछ प्रतिबंध लगाये, भूमि के प्रयोग को नोटिफाई करे।
उत्तराखण्ड में भी क़ानून पहले से ही एक भावनात्मक मुद्दा रहा है। सरकार के सामने एक और जन भावनाएँ हैं तो दूसरी और विकास से जुड़ी समस्या और बू क़ानून का दूसरे राज्यों में रह रहे उत्तराखंडियों पर पड़ने वाला प्रभाव भी महत्वपूर्ण है। पूर्ववर्ती सरकारों ने अपने समय की स्थिति को देखते हुए जो उचित समझा , क़ानून में संशोधन कर लागू कर दिया। इसे शायद दूरगामी सोच में कमी कही जाएगी कि बहुत सी समस्या होने पर जनता की और से सख़्त भू क़ानून लाने की माँग बढ़ रही है। सरकार को दोनों पक्ष ही देखने होंगे और यह भी सुनिश्चित करना होगा कि प्रदेश की भूमि का अनुचित दोहन न हो और यहाँ की संस्कृति भी सुरक्षित रखी जा सके। इसके लिए कुछ मुख्य सुझाव हैं किनपर सरकार चाहे तो अभी भी विचार कर सकती है:
 १ उत्तराखण्ड के किसी भी मूल निवासी को जो अपनी भूमि किसी कारण विक्रय करना चाहता है, कारण बताते हुए उप ज़िला मजिस्ट्रेट से लिखित अनुमति लेनी होगी।
 २ उप ज़िला मजिस्ट्रेट उल्लिखित कारणों पर विचार करेंगे और यदि सरकार की किसी योजना का लाभ देकर संबंधित व्यक्ति को उस स्थिति से निकाला जा सकता है तो ऐसा सुनिश्चित करेंगे अन्यथा लिखित स्पष्टीकरण के साथ बिक्री की अनुमति प्रदान करेंगे।
३ प्रदेश से बाहर निवास करने वाले नागरिक शहरी क्षेत्र में अधिकतम अपने परिवार के निवास हेतु ५०० स्क्वायर मीटर भूमि ख़रीद सकेंगे किंतु ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि भूमि केवल सरकार की अनुमति के बाद ख़रीद सकेंगे शर्त यह होगी कि उन्हें भूमि को प्रत्येक वर्ष कृषि उपयोग किए जाने का प्रमाण देना होगा जिसकी अनुपस्थिति और असंतोषजनक स्पष्टीकरण पाये जाने पर भूमि का स्वामित्व सर्किल रेट पर राज्य सरकार में निहित कर लिया जाएगा।यह शर्त प्रत्येक उत्तराखण्ड निवासी क्रेता पर भी लागू होगी।
४ बिना कैबिनेट बैठक की अनुमति कृषि भूमि का उपयोग नहीं बदला जा सकेगा ।
 ५ शहरी क्षेत्र में ख़रीदे गये अथवा अन्य प्रकार से प्राप्त निवासिय प्लॉट पर भी स्वामी को अधिकतम तीन वर्ष के भीतर नक़्शा स्वीकृत कराकर निर्माण सुनिश्चित करना होगा। भूमि की पंजीकृत क़ीमत का ५% प्रतिवर्ष के हिसाब से अधिभार की अदायगी पर अधिकतम दो वर्ष का विस्तार लिया जा सकेगा । पाँच वर्ष तक भी निर्माण पूरा न होने पर कम से कम १५% प्रति वर्ष का अधिभार वसूला जाएगा।
६ नगर निगम की सीमा के अंदर और सीमा से बाहर ८ किमी तक कोई भी निर्माण, प्लोटिंग विकास प्राधिकरण की अनुमति और नक़्शा स्वीकृत कराने के पश्चात ही की जाएगी।
७ निगम/नगर पालिका / नगर क्षेत्र में ख़ाली पड़े प्लॉट के स्वामी को उसका सफ़ाई शुल्क नियत दर से प्रति वर्ष संबंधित निकाय को भुगतान करना होगा।और उसकी संतोषजनक जल निकासी का प्रबंध करना होगा।
 ८ भूमि के क्रय विक्रय करने वाले व्यावसायिक व्यक्तियों को तेरा से पंजीकरण आवश्यक होगा तथा इसका उल्लेख व कमीशन का पंजीकरण पत्र में करना आवश्यक होगा ।
९ आवास के बाहर सड़क की भूमि पर पौधा/वृक्षारोपण केवल स्थानीय निकाय अथवा विकास प्राधिकरण द्वारा ही किया जा सकेगा। किसी भी सूरत में कोई व्यक्तिगत बाड/ ग्रिल आनंद की अनुमति नहीं होगी । जहां पूर्व में ऐसा किया गया है वहाँ क़ानून लागू होने की तिथि से एक महीने के अंदर भी स्वामी को अपने खर्च पर अतिक्रमण हटाना होगा । प्रतिबंधित वृक्षों की स्थिति में वन विभाग उनके प्रतिस्थापन की कार्यवाही सुनिश्चित करेगा ।
१० भविष्य में अतिक्रमण पाये जाने पर संबंधित क्षेत्र के थानाप्रभारी, विकास प्राधिकरण के अभियंता और नगर निगम के कर निरीक्षक को उत्तरदायी ठहराया जाएगा।
११ बड़े उद्योग केवल सरकार द्वारा अधिसूचित क्षेत्र में ही लगाये जा सकेंगे। इसके लिए सरकार अपनी नीतियों के अनुसार भूमि प्रबंधन करेगी।
 हमारा विचार है कि उपरोक्त प्रस्तावों को भी क़ानून में शामिल कर लंबे समय तक बहुत सी समस्याओं से छुटकारा पाया जा सकेगा।