उत्तराखंड के यशस्वी युवा मुख्यमंत्री ने सख़्त भू क़ानून के विषय में की गई घोषणा तो समय पर पूरी कर दी लेकिन एक प्रश्न बुद्धिजीवियों के सामने अवश्य खड़ा कर दिया कि प्रस्तावित भू कानून प्रदेश के विकास में कुछ सहायक होगा अथवा प्रदेश के ताबूत में कील ठोक जाएगा ।कानून की चर्चा तो अभी करना उचित न हो क्यूंकि कानून का पूरा विवरण सामने नहीं आया है और अभी भी इसमें किसी संशोधन पर विचार करने का सरकार के पास विकल्प बचा हे । लेकिन जो भी सामने आया हे उससे स्पष्ट हे कि सरकार अति वादियों के दबाव में आ चुकी है । सरकार ने एक बार फिर जल्दबाजी, अधूरे कानून और एक पक्ष की और झुकाव का परिचय दिया है । अग्निवीर योजना हो या फिर कृषि कानून , केंद्र सरकार ने जैसे जल्दबाज़ी में निर्णय लिए उत्तराखंड सरकार ने भी यू सी सी और भू क़ानून लाकर ऐसा ही अनुसरण किया है । सरकार दूरदृष्टि और संवेदनशीलता से कार्य करती तो न यू सी सी से यहाँ की संस्कृति को चोट पहुँचती और न ही भू क़ानून बार बार परिवर्तित होता । स्पष्ट है कि अभी तक भी सरकार की नीति स्पष्ट नहीं है । पिछले २४ वर्षों में प्रदेश की भूमि के जिस तरह चिथड़े उड़ते रहे उसका सीधा अर्थ है कि या तो सरकार को स्थिति का अनुमान नहीं था अथवा वह आँखे बंदकर दिन में भी सो रही थी। जनता ने जागकर शोर न मचाया होता तो सरकार के जागने की अभी भी कोई उम्मीद नहीं थी । अब पछताए क्या होत हे जब चिड़िया चुग गई खेत । प्रदेश की अधिकतर ज़मीने भू माफ़ियों की शिकार हो चुकी हैं ऐसे में प्रस्तावित क़ानून के ज़रिए प्रदेश को कोई लाभ मिल सके इसमें संदेह है । जिस भूमि पर प्रतिबन्ध पहले भी था बाद में ज़िलाधिकारी की अनुमति से ढील मिल गई और अब वही ढील सरकार के पास पहुँच गई है । फ़र्क़ सिर्फ़ इतना हे कि खेल की चाबी सरकार के पास रख ली गई है । इससे बड़े भू माफियाओं फिर चाहे वह स्थानीय हो अथवा बाहरी , को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा बस मारा गया है वो ग़रीब नागरिक जो अपनी पहाड़ की लगभग बंजर भूमि को बेचकर रोज़गार के दूसरे अवसर ढूंड रहा था। भारत में तो प्रसिद्ध हे कि क़ानून बनने से पहले उसका तोड़ तयार हो जाता हे । इसलिए बड़े व्यापारी तो अपना कार्य येन केन प्रकरेन करते रहेंगे लेकिन आम ग्राहक/इन्वेस्टर बाज़ार से ग़ायब हो जायेगा नतीज़तन कृषि भूमि की कीमतें धड़ाम से नीचे आ सकती हैं । केवल भू उपयोग पर सख्ती बरती जाती तो शायद मूल समस्या का समाधान निकल सकता था।अभी भी भूमि का बड़ा भाग शहरी क्षेत्रों से बाहर बेचा जा चुका है उसने न कृषि हो सकेगी और न ही कोई निर्माण , साधारण जनता फँसकर रह सकती हे । कानूनी समस्या भी खड़ी हो सकती हे । दूसरी और उत्तराखंड में रहने के इच्छुक अथवा भू व्यापारी शहरों की और रूख करेंगे और सारा की भूमि की क़ीमत में बेतहाशा वृद्धि हो सकती हे ।
क्या भू क़ानून में शहरी भूमि के प्रबंधन पर कोई विचार किया गया ? आर्थिक रूप से कमजोर जो बाह्य नागरिक उत्तराखंड में रहना चाहता हे उसके लिए तो ऐसा सोचना टेढ़ी खीर बन जाएगा । नतीजा अवैध नागरिकों , अतिक्रमणों की बाढ़ शहर की फिजा ख़राब कर सकती ही। क्या यह प्रश्न विचार योग्य नहीं है कि एक वर्ग ऐसा भी हे जो न भूमि खरीदेगा और न ही कोई अनुमति लेगा फिर भी उत्तराखंड की बस्तियों में धीरे धीरे अतिक्रमण के माध्यम से बस जाएगा । यह वर्ग भूमि का छोटा सा टुकड़ा शहर में खरीदना चाहे तो यह उसकी सीमा से हमेशा बाहर होगा और देहात में उसे अनुमति नहीं मिलेगी तो क्या वह अतिक्रमण का सहारा नहीं लेगा ? स्वयं सरकार के नुमाइंदे उनसे ऐसा करा देंगे। इसलिए भू कानून लाना था , अवश्य लाना था लेकिन उत्तराखंड की पूरी भूमि क्षेत्र के लिए। लिखना मानसिक पीड़ा उत्पन्न कर रहा हे लेकिन सरकार स्वयं जनता में भेद कर रही हे । पहले यू सी सी से एक वर्ग को बाहर रखा गया , अब भू कानून से दो मेदानी ज़िलों को मुक्त रखा गया हे । कारण ? यह तो सरकार ही बता सकती हे लेकिन इतना ज़रूर हे कि इससे पिछले कुछ समय से प्रदेश में चल रहा पहाड़ी और बाह्य का विवाद सरकार की मनःस्थिति को भी परभावित करने लगा हे ।
प्रदेश की राजनीति इस और स्पष्ट इशारा कर रही है । मूल निवास का मुद्दा हों, बेरोजगार संघ के प्रदर्शन , सरकार में मंत्रालय और राजनीतिक पदों का आवंटन, प्रदेश का मेदानी क्षेत्र उपेक्षित हो रहा हे । सरकार में इस क्षेत्र का कोई मंत्री न होना क्या इस भावना को जन्म देने के लिए काफ़ी नहीं? क्या दो मेंदानी ज़िलों की भूमि अनियंत्रित विक्रय होने से प्रदेश पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा ? क्या यह मैदानी भाग प्रदेश का हिस्सा नहीं है? ऐसे क़ानून से क्या समानता के सिद्धांत को घाव नहीं लगता ? पहाड़ की पथरीली भूमि और इन दो ज़िलों की उपजाऊ भूमि , प्रदेश के लिए कौन सी महत्वपूर्ण हो सकती है? प्रदेश सरकार की यह सोच प्रदेश के भविष्य को अलग दिशा में ले जा रही है जिससे फोर्टी राहत तो मिल सकती हे लेकिन सच्चाई सामने आने पर गहरा घाव ही सामने आयेगा । क्या पहाड़ के निवासी इन क्षेत्रों में निवास नहीं करते ? फिर यह दोहरी नीति किस लिए ! कोई भी कार्य जिससे क्षेत्रवाद, जातिवाद की बू आती हों देशहित में कैसे मानी जा सकती है? कल नागरिकों में यही सोच गहरी हो गई तो यकीन मानिए प्रदेश की राजनीति दो हिसो में बंट जाएगी और कितनी भी कोशिश हो जाए सरकार में मेदानी क्षेत्र का प्रभुत्व कोई रोक नहीं पाएगा और प्रदेश के पास पश्चाताप के अलावा कुछ न होगा। तुष्टिकरण की राजनीति से कांग्रेस का अस्तित्व खतरे की जद में आ गया , अब यही बीज दूसरे तरीके से बोए जा रहे प्रतीत होते हैं । सरकार दबाव में नजर आती है और इसका फायदा क्षेत्रवाद के हिमायती उठा सकते हैं जो आत्मघाती साबित हो सकता है । सरकार से अपेक्षा है कि सख्त कानून बनाए, कानून बनाना सरकार का कर्तव्य है लेकिन कानून के सभी पहलुओं पर पूर्व गहन मंथन अवश्य कर लिया जाना चाहिए। उत्तराखंड देश का सांस्कृतिक दिल है, स्वाभिमान हे और पूरे देश में सार्वभौमिक दखल रखता हे ।
जरा सी चूक किसी नई घातक संस्कृति को जन्म दे सकती हे ।उत्तराखंड ने विकास के कई उच्च शिखर छुए हैं , सही दिशा से भटकने की आवश्यकता नहीं बल्कि अपनी सनातन संस्कृति पर दृढ़ता के साथ जमे रहने की आवश्यकता हे । इसी में प्रदेश की भलाई हे ।
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