national integrity Archives - Tiranga Speaks https://tirangaspeaks.com/tag/national-integrity/ Voice of Nation Wed, 05 Feb 2025 16:12:50 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.1 जातिवाद और क्षेत्रवाद का भेद , कथनी और करनी । https://tirangaspeaks.com/castismkesherwaad/?utm_source=rss&utm_medium=rss&utm_campaign=castismkesherwaad Wed, 05 Feb 2025 16:11:38 +0000 https://tirangaspeaks.com/?p=97   वैसे तो हमारा देश राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत नागरिकों से भरा पड़ा है लेकिन यदि उत्तराखण्ड की बात करें तो शायद यह प्रदेश देश सेवा में अग्रणी निकले। पहाड़ का शायद ही कोई परिवार होगा जिसके किसी न किसी सदस्य ने किसी न किसी सैनिक बल के माध्यम से देश की सेवा न की हो [...]

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वैसे तो हमारा देश राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत नागरिकों से भरा पड़ा है लेकिन यदि उत्तराखण्ड की बात करें तो शायद यह प्रदेश देश सेवा में अग्रणी निकले। पहाड़ का शायद ही कोई परिवार होगा जिसके किसी न किसी सदस्य ने किसी न किसी सैनिक बल के माध्यम से देश की सेवा न की हो । राजनीति की बात करें तो भी इस प्रदेश का योगदान किसी से कम नहीं । गोविंद बल्लभ पंत, हेमवतिनंदन बहुगुणा , नारायण दत्त तिवारी जैसे प्रखर नेता हमारे देश को इसी प्रदेश की देन है।

पहले ऐसा सुनने में बहुत कम आता था कि जनता और नेता किसी जाति विशेष अथवा क्षेत्र विशेष के नाम पर राजनीति करें लेकिन इधर कुछ वर्षों से इसका चलन बढ़ता जा रहा है। नेहरू सरकार ने भले ही क्षेत्र विशेष को कुछ विशेष अधिकार देकर इस राजनीति के बीज बहुत पहले ही बो दिये हों लेकिन लंबे समय तक देश ऐसी भावना को दरकिनार करता रहा । आरक्षण के नाम पर भले किसी समुदाय को मुख्य धारा से अलग रखा गया हो परंतु किसी भी समुदाय में घृणा का स्थान कभी बन नहीं पाया । धीरे धीरे देश में राजनीतिक महत्वाकांक्षा के बढ़ते नये नये छोटे राजनीतिक दलों का आगमन हुआ जिनकी राजनीतिक सोच राष्ट्र से संकुचित होकर प्रदेश तक सिमट गई और आगे जो राजनीतिक विकास हुआ उसने राजनीति का दायरा बेहद सिकोड़कर जातिगत , धार्मिक और क्षेत्र विशेष तक छोटा कर दिया ।

आज गिने चुने राजनेता हैं जो अपना राष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव रखते हैं। अन्यथा कोई मुस्लिम नेता है तो कोई दलित की राजनीति करता है। कोई खलिस्तान की बात करने में गर्व महसूस करता है तो कोई चीन पाकिस्तान को अपना माई बाप समझकर भारत की और आँखें तरेरता दिखायी देता है। जातिवाद, धर्म और क्षेत्र हमारे चुनाव जीतने के आधार बन रहे हैं । कोई साम्यवाद की बात करता है तो कोई अपने को समाजवादी कहकर गर्व का अनुभव करता है। गांधी जी , राजा राम मोहन राय, आज़ाद और भगत सिंह के आदर्शों की दुहाई देने वाले राष्ट्र को भूलकर अपनी जाति पर केंद्रित होते जा रहे हैं।आरक्षण के नाम पर अनगिनत जातीयाँ आपस में भेद भाव कर रही हैं। आश्चर्य और दुख की बात यह है कि छोटे राज्य भी अपनी ही सीमा में क्षेत्रवाद , जातिवाद और धार्मिक भेदभाव का शिकार हो रहे हैं । स्वर्ग से यह नजारा देख हमारे संविधान के निर्माता और मूल विचारक कितनी लज्जा महसूस करते होंगे जिन्होंने संविधान का आरंभ ही “हम भारत के नागरिक” से करते हुए भारत के किसी भी नागरिक को भारत में कहीं भी रहने और कारोबार करने की स्वतंत्रता दी थी । शायद ही कोई सच्चा भारतीय नागरिक होगा जो कश्मीर की इसी दशा के दुष्परिणामों से खुश होता हो। सरकार ने कश्मीर से धारा ३७० और ३५ ए हटा दी तो पूरा देश ख़ुशी से झूम उठा। स्पष्ट था कि हमारी अंतरात्मा कश्मीर की उस अलगाववादी सोच को स्वीकार नहीं कर रही थी ।

यदि आपसे कोई पूछे कि आप कहाँ के नागरिक हो तो गर्व से कहते हो “ भारत के” फिर आपका राज्य , आपका क्षेत्र और आपकी जातीय पहचान कहाँ छुप जाती है? क्या एक राज्य में रहते हुए आपका किसी दूसरे राज्य से कोई संबंध नहीं ? क्या उत्तर दक्षिण पूरब और पश्चिम के बीच कोई सीमाएँ निर्धारित हैं? जरा सोचिए , उत्तराखण्ड के जन्म की तो बात छोड़ दीजिए , आज़ादी से भी पूर्व क्या इस प्रदेश में दूसरे राज्यों के निवासी निवास एवं रोज़गार नहीं करते थे ? क्या यहाँ के निवासी दूसरे राज्यों के स्थानों पर रोज़गार की तलाश में पलायन नहीं करते थे ? क्या यह सिलसिला अब रुक गया है? राज्य की सीमाओं को सील करने, राज्य में ही दो क्षेत्रों गढ़वाल और कुमायूँ को वैचारिक स्तर पर अलग करने, ब्राह्मण और राजपूत की राजनीति करने, नागरिकों को पहाड़ी और देशी में विभक्त करने से आप कौन सी फसल उगा रहे हैं । अपने ही देश से लगभग दूर हो जाना चाहते है ? प्रदेश को और कितने टुकड़ों में बाँटना चाहते हैं। देश में हिंदू राष्ट्र और हिंदू एकता की बात करने वाले अपने ही परिवार को खोखला कर कमजोर करने पर तुले हैं ।

इतिहास देखिए और बताइए कि क्या देहरादून को बनानेवाले आचार्य द्रोण और गुरु राम राय अपने को पहाड़ी मानकर बसाने आये थे । और अन्य महापुरुषों की बात करें तो क्या उन्होंने भी ऐसा ही सोचा था ?

यह सोच केवल उत्तराखंड में पैदा हो रही हो , ऐसा बिलकुल नहीं है बल्कि पूरे देश में यही नफ़रत की फसल उगाई जा रही है। देश को एक दो नहीं हज़ारों टुकड़ों में बाँटने की साजिस अपना काम कर रही है। उत्तराखण्ड एक देवभूमि है जहां से संस्कारों की गंगा बह कर पूरे देश को पवित्र करती है। प्रदेश सांस्कृतिक रूप से देश का नेतृत्व करता है फिर ऐसा सांस्कृतिक प्रदूषण हमें कहाँ लेकर जाएगा ? जैसा मैंने पहले कहा कि इस प्रदेश का एक एक परिवार अपने भारत देश के लिए जान छिड़कता है। सेना के सर्वोच्च अधिकारी हमारे इसी प्रदेश का प्रतिनिधित्व करते हैं। एक और हम पी ओ के को भारत में मिलाने की बात करते हैं और दूसरों और ख़ुद को ही भारत से दूर कर लेना चाहते हैं ।

टी वी पर उत्तराखंड के समाचार देख सुन रहा था । दिल के कोनों में समाचार सुन अफ़सोस और दुख हो रहा था। में स्वयं ५० वर्षों से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भा ज पा ( पहले जन संघ ) से वैचारिक रूप से जुड़ा हूँ लेकिन कभी ऐसी स्थिति नहीं देखी । क्या बेटा बड़ा होकर यूँ ही बाप के ओचित्य को चुनौती देता है? यदि ऐसा है तो हम किस संस्कृति का रोना रोते हैं ? संगठन के पद हों अथवा चुनाव के प्रत्याशी , संघ और पार्टी संगठन के मतभेद खुलकर सामने आना निश्चय ही चिंता में डालने वाला है। एक अर्ध शताब्दी के बाद भारत की जनता को स्वाभिमान और अभिमान की अनुभूति हुई है। देश विश्वगुरु बनने का आकांक्षी है। यदि इस तरह के मतभेद बढ़ते रहे तो देश की बर्बादी इसी के सुपुत्रों द्वारा लिखी जाएगी ।

आइये अपने मन के भीतर झांकिये वहाँ एक सच्चा देश भक्त और देव पुरुष बैठा है। उसे पहचानिए , उसका निरादर मत करिए । वो आपकी आत्मा है उसके बिना जीवन का कोई अर्थ नहीं है। जातिवाद , क्षेत्रवाद जैसी संकुचित सोच से बाहर निकलये । कुछ बड़ा बनिये , बड़ा करिए । बड़े परिवार की महत्ता को समझये। देश ही हमारा परिवार, नगर, क्षेत्र और प्रदेश है। भारतीय हमारी नागरिकता है, सोच और संस्कृति है। यही हमारी जाति और पहचान है। जो आगे बढ़ेगा देश के लिए करेगा । देश है तो हम हैं । इसे वैचारिक, भाषाई, सांस्कृतिक , क्षेत्र और जातियों में बाँटकर कमजोर मत कीजिए ।

हमे देश में कहीं भी बसने और रहने का अधिकार है तो दूसरों को भी हमारे यहाँ उतना ही सम्मान मिलना चाहिए ।यदि उत्तराखण्ड से जाकर उत्तर प्रदेश में योगी जी देश का नाम रोशन कर सकते हैं , गुजरात से आदरणीय मोदी जी, अमित शाह , मध्यप्रदेश से शिव राज सिंह चौहान , हरियाणा के देवी लाल , दक्षिण से आदरणीय निर्मला सीता रमन , महाराष्ट्र , आसाम और कर्नाटक के अनेक नेता देश की सेवा कर सकते हैं , उत्तराखण्ड के श्री अजीत डोभाल, विपिन रावत और अन्य बहुत से नायक देश की सुरक्षा की गारंटी दे सकते हैं तो आप भी ऐसे ही चरित्रों का अनुशासनात्मक कर देश के निर्माण में अपनी भूमिका निभा सकते हैं।

 

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देश चाहिए या प्रदेश ? https://tirangaspeaks.com/%e0%a4%a6%e0%a5%87%e0%a4%b6-%e0%a4%9a%e0%a4%be%e0%a4%b9%e0%a4%bf%e0%a4%8f-%e0%a4%af%e0%a4%be-%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%a6%e0%a5%87%e0%a4%b6/?utm_source=rss&utm_medium=rss&utm_campaign=%25e0%25a4%25a6%25e0%25a5%2587%25e0%25a4%25b6-%25e0%25a4%259a%25e0%25a4%25be%25e0%25a4%25b9%25e0%25a4%25bf%25e0%25a4%258f-%25e0%25a4%25af%25e0%25a4%25be-%25e0%25a4%25aa%25e0%25a5%258d%25e0%25a4%25b0%25e0%25a4%25a6%25e0%25a5%2587%25e0%25a4%25b6 Thu, 30 Jan 2025 16:38:32 +0000 https://tirangaspeaks.com/?p=90 प्रकृति का नियम है कि पृथ्वी पर विभिन्न समुदाय अपने सर्वाइवल के लिये संघर्ष करते रहें और सभ्य समाज का मंत्र है कि एक होकर सभी समस्याओं का हल खोजें । यही भारत था जो एक होकर अंग्रेजों से लड़ रहा था। कोई पंजाब से तो कोई बंगाल से , कश्मीर से कन्याकुमारी तक सबका [...]

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प्रकृति का नियम है कि पृथ्वी पर विभिन्न समुदाय अपने सर्वाइवल के लिये संघर्ष करते रहें और सभ्य समाज का मंत्र है कि एक होकर सभी समस्याओं का हल खोजें । यही भारत था जो एक होकर अंग्रेजों से लड़ रहा था। कोई पंजाब से तो कोई बंगाल से , कश्मीर से कन्याकुमारी तक सबका एक ही ध्येय था । हमारा भारत। आज़ाद हुआ तो सारी सल्तनतें भी भारत के तिरंगे की शरण में आ गई। लेकिन उसके बाद मानों भारत को किसी की नज़र लग गई। देश में भाषाई और सांप्रयदिक उन्माद ने ऐसा जन्म लिया कि हमारी सोच संकुचित होती चली गई। देश में प्रदेशों की स्थापना प्रशासनिक व्यवस्थाओं को सुचारू करने के लिए संघीय ढाँचे के स्वरूप में हुई थी न कि किसी विशेष संप्रदाय, भाषा अथवा क्षेत्र के आधार पर। पहाड़ भी हमारे थे, मैदान ,पठार, जंगल , नदियाँ और समुद्र भी हमारे थे। देश में अपने संविधान का निर्माण हुआ तो देश के सभी नागरिकों को समान अधिकार मिले।

कश्मीर में धारा ३७० और ३५ए के अनुमोदन ने सभी प्रदेशों में इसी तरह के क़ानून के चलन को प्रोत्साहित कर दिया फिर वो हिमाचल, उत्तराखण्ड हो या उत्तर पूर्वी राज्य अथवा कोई अन्य राज्य , किसी न किसी रूप में क्षेत्रवाद का जन्म हुआ है।इसी के साथ अवसरों के बँटवारे के लिए सभी जातियों में भी अपने लिए संघर्ष की भावना जगी है। तेरा मेरा की सभ्यता ने कहीं न कहीं देश को अनेक विचारधाराओं में बाँट कर रख दिया।जहां यह स्थिति देश की संप्रभुता के लिये विनाशकारी है वहीं कुछ मौलिक अधिकारों की अवहेलना क्षेत्रीय स्तर पर असंतोष का कारण बन रही है। देश में विविधता के चलते अधिकांश कमजोर व माध्यम वर्ग अपने ही क्षेत्र में नौकरी और व्यवसाय करना चाहता है । इसके पीछे उसकी संस्कृति, प्राकृतिक वातावरण और धन की कमी भी बड़ा कारण है। ऐसे में यदि मूल निवास का प्रश्न उठता है तो उसे उचित ही कहा जायेगा। यदि स्थानीय संसाधनों पर भी स्थानीय युवाओं को स्थान न मिले और उस प्राथमिकता को भी दूसरे क्षेत्रों के संपन्न व्यक्ति छीन ले तो निश्चित रूप से मूल निवासी अपने को ठगा महसूस करेगा। इसलिए जनहित में कम से कम ५०% अवसर मूल निवासियों को मिलने चाहिए लेकिन न्याय हित में न्यूनतम निश्चित अवधि से प्रदेश में निवास कर रहे और शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए।

जहां तक भू क़ानून का प्रश्न है ऐसा क़ानून कहीं भी देश हित में नहीं है। हाँ इसे सीमित रूप में लागू किया जा सकता है। जरा सोचिए यदि कठोर भू क़ानून सभी प्रदेश समान रूप से लागू कर दे तो कितनी भयानक स्थिति हो सकती है। कल व्यापार पर भी ऐसे क़ानून की तरह माँग उठने लगे और सरकार मान भी ले तो सभी प्रदेशों में किसी न किसी उपभोक्ता वस्तु का अकाल पड जाएगा। दूसरी और अपनी आवश्यकता और परिस्थितियों के कारण मजबूर लोगों को स्थानीय भू माफिया के अलावा कोई ख़रीदार नहीं मिलेगा ।ऐसी स्थिति में उसे वाजिब दाम नहीं मिलेंगे और स्थानीय भूमाफिया उसका शोषण करेंगे। उचित है कि केवल अधिसूचित क्षेत्र में ही निश्चित सीमा तक दूसरे प्रदेश के निवासियों को भूमि ख़रीदने की अनुमति दी जाय बशर्ते उससे उस स्थान की प्रकृति में कोई परिवर्तन न हो। देश के प्रत्येक नागरिक को देश के किसी भी हिस्से में निवास करने के मौलिक अधिकार का तो कम से कम सम्मान होना ही चाहिए। विश्व में प्रकृतिकऔर खगोलीय स्थितियाँ तेज़ी से बदल रही हैं। भारत भी उससे अछूता नहीं है। छोटे राज्यों में सूचनाएँ तेज़ी से फैलती हैं और वहाँ की जनता की सरकार से अपेक्षायें भी अधिक होती हैं। ऐसे में असंतोष की एक चिंगारी बड़े संघर्ष को जन्म दे सकती है।

ऐसा ही कुछ उत्तराखण्ड में भी देखने को मिला। प्रदेश पहले ही मूल निवास और सख़्त भूक़ानून को लेकर चिंतित था । इससे पहले कि उक्त दोनों माँगों पर सरकार कुछ विचार करती, भ्रष्टाचार का एक बड़ा मुद्दा खड़ा हो गया और इसी के चलते सचिवालय में ऊर्जा सचिव के साथ बेरोज़गार संघ के अध्यक्ष की कहसुनी हो गई। जो भी हुआ उसे दोनों ही स्तर पर उचित नहीं ठहराया जा सकता और किसी जनसेवक अधिकारी के स्तर पर तो बिलकुल नहीं। स्थिति कोई गंभीर नहीं थी, भ्रष्टाचार का मामला होने के कारण किसी राजनीतिक कार्यकर्ता का विचलित होना स्वाभाविक रूप से अपेक्षित हो सकता है लेकिन किसी जनसेवक की हठधर्मी को उपयुक्त व्यवहार नहीं ठहराया जा सकता । परिस्थिति को कूटनीतिक व्यवहार से टाला भी जा सकता था । व्यवस्था सुधारने के स्थान पर दमनात्मक प्रतिक्रिया को अच्छी परंपरा नहीं कहा जा सकता । जनता के रोष का सामना किसी जनसेवक अधिकारी के लिये कोई विचित्र घटना नहीं होती ।

बेरोज़गार संघ की पुलिस भर्ती के लिए आयु सीमा बढ़ाने की माँग के लंबित रहते माहोल और ख़राब हो गया।आज के समय जब सत्ता में बैठी पार्टी भ्रष्टाचार के विरुद्ध शून्य सहनशक्ति की नीति अपनाने की बात करती हो वहाँ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के चलते किसी नौकरशाह को सेवा विस्तार देना किसी के भी गले नहीं उतरता। सेवा विस्तार तो दूर की बात है, सतर्कता आयोग के निर्देशों के अंदर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के चलते संबंधित नौकरशाह को तब तक संवेदनशील पद से दूर रखा जाना चाहिए जब तक कि संबंधित जनसेवक दोषमुक्त घोषित न हो जाये। सेवा विस्तार तो बहुत ही विशेष परिस्थितियों में जनसेवक की अति उत्तम छवि और सतर्कता क्लीयरेंस के बाद दिया जाना चाहिए। वर्तमान प्रकरण के तार सरकार में कहाँ तक जुड़े हैं, यह कहना तो जल्दबाज़ी होगा किंतु इससे सरकार की छवि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना निश्चित है। सरकार कितनी भी ईमानदार क्यों न हो किसी वरिष्ठ अधिकारी द्वारा किए गए भ्रष्टाचार से पल्ला नहीं झाड़ सकती। मुख्यमंत्री की चुप्पी जनता को संशय में डालने के लिए पर्याप्त है। आज हम जिस दौर से गुजर रहे हैं वहाँ जनता में फैला आक्रोश कुछ भी गुल खिला सकता है। छोटा प्रदेश है, आंदोलन की चिंगारी बड़ी तेज़ी से फैलती है और यहाँ की जनता शीघ्र उद्वेलित होकर प्रभावित होती है ऐसे में सरकार की छवि पर हल्का सा भी दबाव प्रदेश की फ़िज़ा को बदलने में कामयाब हो सकता है। देश और प्रदेश प्रथम है उसके सामने कोई भी नौकरशाह , नेता अधिक महत्वपूर्ण नहीं हो सकता । ऐसा भी कोई व्यक्ति नहीं हो सकता जिसके बिना प्रदेश का शासकीय कार्य अवरुद्ध हो जाये। इससे पहले कि यह असंतोष जनआंदोलन में परिवर्तित होकर नये मंच को जन्म दे दे , आदरणीय मुख्यमंत्री को भ्रष्टाचार पर कड़ा प्रहार करते हुए सरकार की भ्रष्टाचार विरोधी प्रतिबद्धता को जनता के सामने सिद्ध कर देना चाहिए।वरना अफ़वाहों का बवंडर सरकार और पार्टी के लिए कितना विनाशकारी हो सकता है, इसकी कल्पना सहज ही लगायी जा सकती है।

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