Tiranga Speaks https://tirangaspeaks.com/ Voice of Nation Sat, 01 Mar 2025 00:31:17 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.1 Uttarakhand will be new Thailand sex capital? https://tirangaspeaks.com/uttarakhand-will-be-new-thailand-sex-capital/?utm_source=rss&utm_medium=rss&utm_campaign=uttarakhand-will-be-new-thailand-sex-capital https://tirangaspeaks.com/uttarakhand-will-be-new-thailand-sex-capital/#respond Sat, 01 Mar 2025 00:31:17 +0000 https://tirangaspeaks.com/?p=171 हिंदुस्तान में लड़का लड़की यदि प्रेमपाश में फँस जाए तो उन्हें चोरी छिपे किसी स्थान पर मिलना पड़ता था और यदि किसी परिचित की नज़र पड जाए अथवा किसी पुलिस कर्मचारी को शक हो जाए तो बस जान मुसीबत में आ जाती थी और कभी पड़ोस वाली आंटी ने देख लिया तो क़यामत निश्चित थी [...]

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हिंदुस्तान में लड़का लड़की यदि प्रेमपाश में फँस जाए तो उन्हें चोरी छिपे किसी स्थान पर मिलना पड़ता था और यदि किसी परिचित की नज़र पड जाए अथवा किसी पुलिस कर्मचारी को शक हो जाए तो बस जान मुसीबत में आ जाती थी और कभी पड़ोस वाली आंटी ने देख लिया तो क़यामत निश्चित थी । शायद ऐसे जोड़ों का दर्द उत्तराखंड सरकार ने समझ लिया फिर क्या था युवा मुख्यमंत्री की युवा सरकार ने दरियादिली का ऐसा नमूना पेश किया कि उत्तराखंड क्या पूरे देश की संस्कृति को ताक पर रखकर छोड़ दिया ।

यू सी सी के नाम पर ऐसा कानून बना दिया कि क्या हिंदू और क्या मुस्लिम , सिख हो या ईसाई , सबको लाज शर्म छोड़कर बे झिझक अय्याशी करने की अनुमति मिल गई। अभी तक ऐसे जोड़ों को वैधानिक अनुमति नहीं थी लेकिन अब तो पंजीकरण के साथ ही पूर्ण सुरक्षा की गारंटी भी मिल गई। पंजीकरण कराइए और ठाट से एक साथ रहिए , संबंध बनाइए और प्यार के दुश्मन माता पिता , ताऊ चाचा , भाई और मामा आदि से पुलिस आपकी रक्षा करेगी क्योंकि सरकार ने अब आपको ऐसा करने का लाइसेंस जो दे दिया है ।कोई कहे कि इससे संस्कृति को हानि पहुंचेगी ? अरे भाई सरकार की दूर दृष्टि देखिए , हो सकता है उत्तराखंड का कोई नीति निर्धारक सरकारी खर्च पर थाईलैंड भ्रमण पर गया हो और सरकारी आय और रोजगार बढ़ाने के इस अनुपम फार्मूले को वहाँ से चोरी छिपे उत्तराखंड के लिए आयात कर लाया हो ।उत्तराखंड में लव जिहाद जेसी परिभाषित बीमारी समाप्त हो जाएगी अर्थात् यूँ कहें कि म्यूटेटेड होकर दूसरे चरण में आ जाएगी ।

सारे होटल, स्टेहोम, फ़ार्म हाउस और रिसोर्ट्स का धंदा चल निकलेगा । युवाओं को सेक्स की आज़ादी मिल जाएगी , वे सरकार का विरोध छोड़कर इस नये व्यवसाय में आय के श्रोत ढूँढेंगे। मैटरनिटी हॉस्पिटल्स की चाँदी और बहू विवाह ( जो प्रतिबंधित है) का विकल्प भी मिल जाएगा । अनुबंध शादियां होने लगेंगी। कुछ लोगों की तो मति मारी गई है जो लिव एंड रिलेशन का विरोध कर रहे हैं । जनाब कुछ दिन इंतज़ार करिए उत्तराखंड की तुलना थाईलैंड क्या स्विट्ज़रलैंड से भी होने लगेगी। जनता के साथ सरकार का रेवन्यू बढ़ जाएगा जो प्रदेश के विकास में काम आयेगा । आप मूल निवास की बात भूल जाएँगे और प्रदेश में पूरे विश्व के निवासी मूल निवासी उत्पन्न कर देंगे । हो सकता हे २५ वर्ष बाद आपको नई नस्ल का मुख्य मंत्री ही मिल जाए फिर तो प्रदेश राष्ट्रीय एकता और भिन्नता में एकता का उदाहरण ही बन जाएगा । दो चार माता पिता अपनी इज्जत का रोना रोते आत्महत्या कर भी लें तो सरकार पर क्या प्रभाव पड़ता है? आप सोचेंगे अजीब सिरफिरा इंसान हे , लाइव एंड रिलेशन का समर्थन कर रहा ही या आनेवाले भूचाल की भविष्यवाणी ? जनाब मेरा तरीका कोई भी हो लेकिन आप भी वही समझ रहे हैं जो में कहना छह रहा हूँ। आख़िर इस विषय का यू सी सी से रिश्ता ही क्या था की आपने मधुमक्खी के छत्ते में हाथ घुसा दिया।

शहद का इतना लालच भी ठीक नहीं और न ही युवाओं को खुश करने का उचित माध्यम । उत्तराखंड के युवा किसी अलग संस्कृति से नहीं जन्मे , उन्हें रोजगार की आवश्यकता है जिससे उनका भविष्य भी बने और शादी भी हो जाए । इस लिव एंड रिलेशन का लॉलीपॉप देकर उन्हें मत भटकाइए । एक और भारतीय जनता पार्टी सनातन की संस्कृति की बात करती ही और दूसरी और ऐसा निर्णय? घोर आश्चर्य हो रहा हे । आधुनिकता के नाम पर जो परोसा गया हे उससे सनातनी सोच में पद गया हे की कहीं उसे ठगा तो नहीं जा रहा हे । कोहरा छटेगा और सच्चाई सामने आयेगी और फिर ऐसा जलाल आ सकता हे की सब कुछ साफ़ हो जाए । ये चिंगारी कहीं अपने ग़रीब को ही जलाकर रख न कर दे इसलिए वक्त रहते चैतन्य होने की आवश्यकता हे । और बहुत विषय हैं ध्यान देने के लिए ।

ऐसे समय जब उत्तराखंड की संस्कृति को बचाने के लिए उत्तराखंडी जनता अपनी आवाज उठा रही हे, लिव एंड रिलेशन का मुद्दा सरकार के लिए परेशानी का सबब न बन जाए। धीरे धीरे हम फिर चुनाव की और बढ़ रहे हैं और सरकार हे कि विपक्ष को मसले सप्लाई करने पर उतारू हे । देखते हैं भविष्य उत्तराखंड को कहाँ प्रस्थापित करेगा ।

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भू क़ानून सही अथवा प्रदेश के ताबूत में कील ? https://tirangaspeaks.com/uttarakhand-land-laws/?utm_source=rss&utm_medium=rss&utm_campaign=uttarakhand-land-laws https://tirangaspeaks.com/uttarakhand-land-laws/#respond Tue, 25 Feb 2025 03:55:30 +0000 https://tirangaspeaks.com/?p=168 उत्तराखंड के यशस्वी युवा मुख्यमंत्री ने सख़्त भू क़ानून के विषय में की गई घोषणा तो समय पर पूरी कर दी लेकिन एक प्रश्न बुद्धिजीवियों के सामने अवश्य खड़ा कर दिया कि प्रस्तावित भू कानून प्रदेश के विकास में कुछ सहायक होगा अथवा प्रदेश के ताबूत में कील ठोक जाएगा ।कानून की चर्चा तो अभी [...]

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उत्तराखंड के यशस्वी युवा मुख्यमंत्री ने सख़्त भू क़ानून के विषय में की गई घोषणा तो समय पर पूरी कर दी लेकिन एक प्रश्न बुद्धिजीवियों के सामने अवश्य खड़ा कर दिया कि प्रस्तावित भू कानून प्रदेश के विकास में कुछ सहायक होगा अथवा प्रदेश के ताबूत में कील ठोक जाएगा ।कानून की चर्चा तो अभी करना उचित न हो क्यूंकि कानून का पूरा विवरण सामने नहीं आया है और अभी भी इसमें किसी संशोधन पर विचार करने का सरकार के पास विकल्प बचा हे । लेकिन जो भी सामने आया हे उससे स्पष्ट हे कि सरकार अति वादियों के दबाव में आ चुकी है । सरकार ने एक बार फिर जल्दबाजी, अधूरे कानून और एक पक्ष की और झुकाव का परिचय दिया है । अग्निवीर योजना हो या फिर कृषि कानून , केंद्र सरकार ने जैसे जल्दबाज़ी में निर्णय लिए उत्तराखंड सरकार ने भी यू सी सी और भू क़ानून लाकर ऐसा ही अनुसरण किया है । सरकार दूरदृष्टि और संवेदनशीलता से कार्य करती तो न यू सी सी से यहाँ की संस्कृति को चोट पहुँचती और न ही भू क़ानून बार बार परिवर्तित होता । स्पष्ट है कि अभी तक भी सरकार की नीति स्पष्ट नहीं है । पिछले २४ वर्षों में प्रदेश की भूमि के जिस तरह चिथड़े उड़ते रहे उसका सीधा अर्थ है कि या तो सरकार को स्थिति का अनुमान नहीं था अथवा वह आँखे बंदकर दिन में भी सो रही थी। जनता ने जागकर शोर न मचाया होता तो सरकार के जागने की अभी भी कोई उम्मीद नहीं थी । अब पछताए क्या होत हे जब चिड़िया चुग गई खेत । प्रदेश की अधिकतर ज़मीने भू माफ़ियों की शिकार हो चुकी हैं ऐसे में प्रस्तावित क़ानून के ज़रिए प्रदेश को कोई लाभ मिल सके इसमें संदेह है । जिस भूमि पर प्रतिबन्ध पहले भी था बाद में ज़िलाधिकारी की अनुमति से ढील मिल गई और अब वही ढील सरकार के पास पहुँच गई है । फ़र्क़ सिर्फ़ इतना हे कि खेल की चाबी सरकार के पास रख ली गई है । इससे बड़े भू माफियाओं फिर चाहे वह स्थानीय हो अथवा बाहरी , को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा बस मारा गया है वो ग़रीब नागरिक जो अपनी पहाड़ की लगभग बंजर भूमि को बेचकर रोज़गार के दूसरे अवसर ढूंड रहा था। भारत में तो प्रसिद्ध हे कि क़ानून बनने से पहले उसका तोड़ तयार हो जाता हे । इसलिए बड़े व्यापारी तो अपना कार्य येन केन प्रकरेन करते रहेंगे लेकिन आम ग्राहक/इन्वेस्टर बाज़ार से ग़ायब हो जायेगा नतीज़तन कृषि भूमि की कीमतें धड़ाम से नीचे आ सकती हैं । केवल भू उपयोग पर सख्ती बरती जाती तो शायद मूल समस्या का समाधान निकल सकता था।अभी भी भूमि का बड़ा भाग शहरी क्षेत्रों से बाहर बेचा जा चुका है उसने न कृषि हो सकेगी और न ही कोई निर्माण , साधारण जनता फँसकर रह सकती हे । कानूनी समस्या भी खड़ी हो सकती हे । दूसरी और उत्तराखंड में रहने के इच्छुक अथवा भू व्यापारी शहरों की और रूख करेंगे और सारा की भूमि की क़ीमत में बेतहाशा वृद्धि हो सकती हे ।

क्या भू क़ानून में शहरी भूमि के प्रबंधन पर कोई विचार किया गया ? आर्थिक रूप से कमजोर जो बाह्य नागरिक उत्तराखंड में रहना चाहता हे उसके लिए तो ऐसा सोचना टेढ़ी खीर बन जाएगा । नतीजा अवैध नागरिकों , अतिक्रमणों की बाढ़ शहर की फिजा ख़राब कर सकती ही। क्या यह प्रश्न विचार योग्य नहीं है कि एक वर्ग ऐसा भी हे जो न भूमि खरीदेगा और न ही कोई अनुमति लेगा फिर भी उत्तराखंड की बस्तियों में धीरे धीरे अतिक्रमण के माध्यम से बस जाएगा । यह वर्ग भूमि का छोटा सा टुकड़ा शहर में खरीदना चाहे तो यह उसकी सीमा से हमेशा बाहर होगा और देहात में उसे अनुमति नहीं मिलेगी तो क्या वह अतिक्रमण का सहारा नहीं लेगा ? स्वयं सरकार के नुमाइंदे उनसे ऐसा करा देंगे। इसलिए भू कानून लाना था , अवश्य लाना था लेकिन उत्तराखंड की पूरी भूमि क्षेत्र के लिए। लिखना मानसिक पीड़ा उत्पन्न कर रहा हे लेकिन सरकार स्वयं जनता में भेद कर रही हे । पहले यू सी सी से एक वर्ग को बाहर रखा गया , अब भू कानून से दो मेदानी ज़िलों को मुक्त रखा गया हे । कारण ? यह तो सरकार ही बता सकती हे लेकिन इतना ज़रूर हे कि इससे पिछले कुछ समय से प्रदेश में चल रहा पहाड़ी और बाह्य का विवाद सरकार की मनःस्थिति को भी परभावित करने लगा हे ।

 

प्रदेश की राजनीति इस और स्पष्ट इशारा कर रही है । मूल निवास का मुद्दा हों, बेरोजगार संघ के प्रदर्शन , सरकार में मंत्रालय और राजनीतिक पदों का आवंटन, प्रदेश का मेदानी क्षेत्र उपेक्षित हो रहा हे । सरकार में इस क्षेत्र का कोई मंत्री न होना क्या इस भावना को जन्म देने के लिए काफ़ी नहीं? क्या दो मेंदानी ज़िलों की भूमि अनियंत्रित विक्रय होने से प्रदेश पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा ? क्या यह मैदानी भाग प्रदेश का हिस्सा नहीं है? ऐसे क़ानून से क्या समानता के सिद्धांत को घाव नहीं लगता ? पहाड़ की पथरीली भूमि और इन दो ज़िलों की उपजाऊ भूमि , प्रदेश के लिए कौन सी महत्वपूर्ण हो सकती है? प्रदेश सरकार की यह सोच प्रदेश के भविष्य को अलग दिशा में ले जा रही है जिससे फोर्टी राहत तो मिल सकती हे लेकिन सच्चाई सामने आने पर गहरा घाव ही सामने आयेगा । क्या पहाड़ के निवासी इन क्षेत्रों में निवास नहीं करते ? फिर यह दोहरी नीति किस लिए ! कोई भी कार्य जिससे क्षेत्रवाद, जातिवाद की बू आती हों देशहित में कैसे मानी जा सकती है? कल नागरिकों में यही सोच गहरी हो गई तो यकीन मानिए प्रदेश की राजनीति दो हिसो में बंट जाएगी और कितनी भी कोशिश हो जाए सरकार में मेदानी क्षेत्र का प्रभुत्व कोई रोक नहीं पाएगा और प्रदेश के पास पश्चाताप के अलावा कुछ न होगा। तुष्टिकरण की राजनीति से कांग्रेस का अस्तित्व खतरे की जद में आ गया , अब यही बीज दूसरे तरीके से बोए जा रहे प्रतीत होते हैं । सरकार दबाव में नजर आती है और इसका फायदा क्षेत्रवाद के हिमायती उठा सकते हैं जो आत्मघाती साबित हो सकता है । सरकार से अपेक्षा है कि सख्त कानून बनाए, कानून बनाना सरकार का कर्तव्य है लेकिन कानून के सभी पहलुओं पर पूर्व गहन मंथन अवश्य कर लिया जाना चाहिए। उत्तराखंड देश का सांस्कृतिक दिल है, स्वाभिमान हे और पूरे देश में सार्वभौमिक दखल रखता हे ।

जरा सी चूक किसी नई घातक संस्कृति को जन्म दे सकती हे ।उत्तराखंड ने विकास के कई उच्च शिखर छुए हैं , सही दिशा से भटकने की आवश्यकता नहीं बल्कि अपनी सनातन संस्कृति पर दृढ़ता के साथ जमे रहने की आवश्यकता हे । इसी में प्रदेश की भलाई हे ।

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उत्तराखण्ड में मूल निवास और भू क़ानून – समाधान  https://tirangaspeaks.com/uttarakhand-resident-policy/?utm_source=rss&utm_medium=rss&utm_campaign=uttarakhand-resident-policy https://tirangaspeaks.com/uttarakhand-resident-policy/#respond Mon, 10 Feb 2025 08:07:06 +0000 https://tirangaspeaks.com/?p=164 कई महीनों से उत्तराखंड में मूल निवास और भू क़ानून की चर्चा ज़ोरों पर है। काफ़ी पूछताछ और चर्चा के बाद भी इसके ओचित्य को समझने में मुश्किल हो रही है। हम आज़ादी से पहले भी भारतवासी थे यानी भारत के ही मूल निवासी और आज भी हमारी पहचान वही है। सांस्कृतिक रीतिरिवाजों से अवश्य [...]

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कई महीनों से उत्तराखंड में मूल निवास और भू क़ानून की चर्चा ज़ोरों पर है। काफ़ी पूछताछ और चर्चा के बाद भी इसके ओचित्य को समझने में मुश्किल हो रही है। हम आज़ादी से पहले भी भारतवासी थे यानी भारत के ही मूल निवासी और आज भी हमारी पहचान वही है। सांस्कृतिक रीतिरिवाजों से अवश्य हमें क्षेत्र के नाम पर पुकारा जाता था जिससे हमारी भाषा, रहनसहन, संस्कृति और वेशभूषा का आभास होता था जो आज भी प्रचलित है लेकिन में नहीं समझता कि हमारी इस दूसरी पहचान का हमारे किसी अधिकार से कोई सरोकार था। पूर्व में हमारी प्रथाएँ ही हमारा क़ानून होती थी इसलिए क्षेत्र के हिसाब से कुछ क़ानून बदलते जाते थे ।लेकिन इस दूसरी पहचान को बनाये रखने का अर्थ है अपनी पुरानी सांस्कृतिक धरोहरों को बचाये रखना।
यदि इसी उद्देश्य को लेकर किसी माँग पर चर्चा की जाय तो यह कहीं से भी असंगत नहीं लगता किंतु हमारी मूल पहचान भारतीय है जिसे विभिन्न टुकड़ों में बाँटा जाना भी न्यायोचित नहीं है। किसी भी वर्ग अथवा क्षेत्र द्वारा अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाये रखना उनके अपने पूर्वजों के प्रति विश्वास और सम्मान को दर्शाता है लेकिन क्या कोई व्यक्ति प्राकृतिक विकास जिसे एवोल्यूशन भी कहा जाता है, की गति को रोक सकता है शायद नहीं , हाँ कुछ पर्यासों से गति बढ़ /घट अवश्य सकती है। जैसे मानव द्वारा निरंतर अनुषंधान करने, नई परिष्ठितियों से निपटने के लिए परिवर्तित होने जैसी क्रियायें हो सकती है।प्रकर्ती में परिवर्तन अपरिहार्य है जो स्वतः स्फूर्तिक है, जिसे रोका नहीं जा सकता।
स्पष्ट है कि धीरे धीरे स्वयमेव परिवर्तन आ रहा है कुछ मानव जनित तो कुछ प्राकर्तिक रूप से। अपने उत्तराखण्ड को ही ले लीजिए अधिक नहीं सिर्फ़ आज़ादी के ७५ वर्षों के पन्ने पलट कर देखिए कितना कठिन रहा होगा पहाड़ का जीवन? सुविधा के नाम पर आसमान सी खामोशी । शिक्षा के नाम पर कोई उच्च संस्थान नहीं। स्वास्थ्य के नाम पर व्यक्ति बीमार हो जाये तो उपरवाले प्रभु और स्थानीय देवी देवताओं के भरोसे ज़िंदगी ।सिर पर छत के लाले और जीने के लिए जंगल में कड़ी मेहनत, खाद्यान्न की कमी लेकिन धीरे धीरे मेहनत और विश्वास के सहारे बहुत कुछ बदल गया । पहाड़ से युवकों ने बाहर जाकर अवसर ढूँढना शुरू किए तो ख़ुशहाली का दामन हाथ लगा । आज अनगिनत उदाहरण हैं जो पहाड़ की उन्नति और विकास की कहानी बताने के लिए काफ़ी हैं।
मूल निवास का प्रश्न उठना तो निश्चित रूप से ओचितिय हीन है। मूल निवास किसी नागरिक का बदला नहीं जा सकता। यह उसके जन्म से जुड़ा मुद्दा है। भारत में जो जहां का मूल निवासी था वहीं का मूल निवासी है। किसी का मूल निवास बदला ही नहीं गया तो उसे लागू करने का प्रश्न ही कहाँ उठता है। कौन कहता है कि जन्म से इस पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले यहाँ के मूल निवासी नहीं हैं जिसने यहाँ जन्म लिया , शिक्षा और रोज़गार लिया , यहीं पर निवास किया उसे कहाँ का मूल निवासी कहा जाएगा । इसके साथ ही यहाँ संपत्ति लेकर निश्चित समय से निवास कर रहे नागरिक को यहाँ का स्थायी निवासी नहीं तो क्या कहा जाएगा ? विदेश में बसने पर तो नागरिकता तक चली जाती है फिर भी वह भारत का मूल निवासी ही कहलाता है। और उससे फ़र्क़ भी क्या पड़ता है? जो जहां रहेगा , वहाँ का नागरिक कहलाएगा और सरकार तदनुसार उसकी व्यवस्था करेगी । आजतक किसी ने सभी प्रकार की आत्मनिर्भरता हासिल नहीं की । अमेरिका , रुस और चीन ने भी नहीं। इसलिए किसी प्रकार की अलगाववादी सोच का कोई महत्व नहीं हो सकता । देहरादून में पढ़े दूसरे राज्य के विद्यार्थियों को उत्तराखंड में मान्यता नहीं मिलेगी तो जॉइन आएगा? उत्तराखंडी भाई बहनों को दूसरे राज्यों में रोज़गार नहीं मिलेगा तो कोई भारत की बात करेगा?
हाँ एक बार अवश्य सच है कि किसी भी क्षेत्र की संपदाओं, अवसरों पर पहला अधिकार वहाँ के स्थानीय निवासियों का होता है। योग्यता अनुसार उन्हें उनका अधिकार मिलना चाहिए। लेकिन इसका तत्पर्य यह बिलकुल नहीं कि दूर दराज के योग्य व्यक्तियों को अवसरों से दूर रखा ज़ाय। कम या अधिक हो सकता है लेकिन उचित सामंजस्य तो रखना ही पड़ेगा।यह संभव ही नहीं है। जरा मश्तिष्क पर ज़ोर डालकर देखिए यदि सभी राज्य ऐसा सोच लें तो लगभग सभी राज्य के पास योग्यता अथवा अवसरों की कमी हो जाएगी। अमेरिका जैसे संपन्न देश को भी विदेशियों को अवसर देने पड़ते हैं। सरकार को चाहिए कि अधिकतम अवसर स्थानीय को मिले लेकिन योग्यता के आधार पर । देश में मिले सांविधानिक अधिकार के अनुसार देश में कहीं भी रहने, रोज़गार करने को चुनौती नहीं दी जा सकती। जरा सोचिए यदि देश के सभी राज्यों में धारा ३७०, ३५a लागू कर दी जाएँ तो क्या होगा ? देश अगले दिन छोटे छोटे देशों में बँटकर कमजोर हो जाएगा।
 अब बात भू क़ानून की करते हैं । यह राज्य का विषय है जिसके अंतर्गत सभी राज्य सरकारें अपनी भूमि का प्रबंधन भू क़ानून के लिये करती हैं।राज्य को खेती, बाग़बानी , उत्पादन , निवास, सड़कें, नहरों इत्यादि के लिए भूमि उपयोग की व्यवस्था करनी होती है। ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहां भूमि की ख़रीद बिक्री न होती हो। कुछ स्थान अलग अलग दृष्टिकोण से अधिक महत्वपूर्ण हो जाते हैं जहां बसने और कारोबार करने के इच्छुक नागरिकों विशेष तौर पर व्यापारियों की संख्या अधिक रहती है।उत्तराखण्ड नया राज्य बना तो सरकार को यहाँ के विकास की चिंता हुई। बहुत सी योजनाएँ बनी जिसके कारण उत्तराखण्ड भूमि क्रय का आकर्षण केंद्र बन गया। भू क़ानून भी बना जिससे भूमि का उचित प्रबंधन किया जा सके। किसी भी स्थान पर जब विकास होता है, भूमि की क़ीमतें बढ़ने लगती हैं इसलिए ख़रीद बिक्री भी अधिक होती है। हर कोई लाभ कमाने की इच्छा रखने लगता है। ऐसा ही उत्तराखंड में घटित हुआ। भूमि आवास और वाणिजियक गतिविधियों के लिए ख़रीदी जाने लगी। जब लाभ की स्थिति होती है तो विशेष रूप से कम भूमि के स्वामी अपनी भूमि की बिक्री कर नये अवसरों की तलाश में पलायन करने लगते हैं।जब प्रदेश में क्रषिभूमि का खेत्रफल घटने लगा तो यहाँ की जनता की आँखें खुली और पुनः भू क़ानून के पुनरीक्षण की माँग बढ़ने लगी।
माँग तो उचित है लेकिन भू क़ानून जिस रूप में माँगा जा रहा है वह थोड़ा अटपटा ज़रूर लगता है। किसी भी विक्रेता को किसी विशेष वर्ग के व्यक्ति को बेचने के लिए बाध्य करना तर्कसंगत नहीं लगता ।न ही इससे भूमि को विक्रय से रोका जा सकता है।बल्कि इससे चंद स्थानीय भू माफियाओं की चाँदी हो जाने की संभावना बढ़ जाती है। जहां तक दूसरे प्रदेशों के नागरिकों द्वारा भूमि ख़रीदने का प्रश्न है तो उन्होंने अधिक दाम देकर भूमि ख़रीद की है और भूमि उत्तराखण्ड में ही रही है। इसके साथ ही उत्तराखंड निवासियों ने भी दूसरे राज्यों में भूमि ख़रीद की है जिसपर कोई प्रतिबंध नहीं है।सरकार को चाहिए कि भूमि की अंधा धुँध बिक्री को नियंत्रित करने के लिए कुछ प्रतिबंध लगाये, भूमि के प्रयोग को नोटिफाई करे।
उत्तराखण्ड में भी क़ानून पहले से ही एक भावनात्मक मुद्दा रहा है। सरकार के सामने एक और जन भावनाएँ हैं तो दूसरी और विकास से जुड़ी समस्या और बू क़ानून का दूसरे राज्यों में रह रहे उत्तराखंडियों पर पड़ने वाला प्रभाव भी महत्वपूर्ण है। पूर्ववर्ती सरकारों ने अपने समय की स्थिति को देखते हुए जो उचित समझा , क़ानून में संशोधन कर लागू कर दिया। इसे शायद दूरगामी सोच में कमी कही जाएगी कि बहुत सी समस्या होने पर जनता की और से सख़्त भू क़ानून लाने की माँग बढ़ रही है। सरकार को दोनों पक्ष ही देखने होंगे और यह भी सुनिश्चित करना होगा कि प्रदेश की भूमि का अनुचित दोहन न हो और यहाँ की संस्कृति भी सुरक्षित रखी जा सके। इसके लिए कुछ मुख्य सुझाव हैं किनपर सरकार चाहे तो अभी भी विचार कर सकती है:
 १ उत्तराखण्ड के किसी भी मूल निवासी को जो अपनी भूमि किसी कारण विक्रय करना चाहता है, कारण बताते हुए उप ज़िला मजिस्ट्रेट से लिखित अनुमति लेनी होगी।
 २ उप ज़िला मजिस्ट्रेट उल्लिखित कारणों पर विचार करेंगे और यदि सरकार की किसी योजना का लाभ देकर संबंधित व्यक्ति को उस स्थिति से निकाला जा सकता है तो ऐसा सुनिश्चित करेंगे अन्यथा लिखित स्पष्टीकरण के साथ बिक्री की अनुमति प्रदान करेंगे।
३ प्रदेश से बाहर निवास करने वाले नागरिक शहरी क्षेत्र में अधिकतम अपने परिवार के निवास हेतु ५०० स्क्वायर मीटर भूमि ख़रीद सकेंगे किंतु ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि भूमि केवल सरकार की अनुमति के बाद ख़रीद सकेंगे शर्त यह होगी कि उन्हें भूमि को प्रत्येक वर्ष कृषि उपयोग किए जाने का प्रमाण देना होगा जिसकी अनुपस्थिति और असंतोषजनक स्पष्टीकरण पाये जाने पर भूमि का स्वामित्व सर्किल रेट पर राज्य सरकार में निहित कर लिया जाएगा।यह शर्त प्रत्येक उत्तराखण्ड निवासी क्रेता पर भी लागू होगी।
४ बिना कैबिनेट बैठक की अनुमति कृषि भूमि का उपयोग नहीं बदला जा सकेगा ।
 ५ शहरी क्षेत्र में ख़रीदे गये अथवा अन्य प्रकार से प्राप्त निवासिय प्लॉट पर भी स्वामी को अधिकतम तीन वर्ष के भीतर नक़्शा स्वीकृत कराकर निर्माण सुनिश्चित करना होगा। भूमि की पंजीकृत क़ीमत का ५% प्रतिवर्ष के हिसाब से अधिभार की अदायगी पर अधिकतम दो वर्ष का विस्तार लिया जा सकेगा । पाँच वर्ष तक भी निर्माण पूरा न होने पर कम से कम १५% प्रति वर्ष का अधिभार वसूला जाएगा।
६ नगर निगम की सीमा के अंदर और सीमा से बाहर ८ किमी तक कोई भी निर्माण, प्लोटिंग विकास प्राधिकरण की अनुमति और नक़्शा स्वीकृत कराने के पश्चात ही की जाएगी।
७ निगम/नगर पालिका / नगर क्षेत्र में ख़ाली पड़े प्लॉट के स्वामी को उसका सफ़ाई शुल्क नियत दर से प्रति वर्ष संबंधित निकाय को भुगतान करना होगा।और उसकी संतोषजनक जल निकासी का प्रबंध करना होगा।
 ८ भूमि के क्रय विक्रय करने वाले व्यावसायिक व्यक्तियों को तेरा से पंजीकरण आवश्यक होगा तथा इसका उल्लेख व कमीशन का पंजीकरण पत्र में करना आवश्यक होगा ।
९ आवास के बाहर सड़क की भूमि पर पौधा/वृक्षारोपण केवल स्थानीय निकाय अथवा विकास प्राधिकरण द्वारा ही किया जा सकेगा। किसी भी सूरत में कोई व्यक्तिगत बाड/ ग्रिल आनंद की अनुमति नहीं होगी । जहां पूर्व में ऐसा किया गया है वहाँ क़ानून लागू होने की तिथि से एक महीने के अंदर भी स्वामी को अपने खर्च पर अतिक्रमण हटाना होगा । प्रतिबंधित वृक्षों की स्थिति में वन विभाग उनके प्रतिस्थापन की कार्यवाही सुनिश्चित करेगा ।
१० भविष्य में अतिक्रमण पाये जाने पर संबंधित क्षेत्र के थानाप्रभारी, विकास प्राधिकरण के अभियंता और नगर निगम के कर निरीक्षक को उत्तरदायी ठहराया जाएगा।
११ बड़े उद्योग केवल सरकार द्वारा अधिसूचित क्षेत्र में ही लगाये जा सकेंगे। इसके लिए सरकार अपनी नीतियों के अनुसार भूमि प्रबंधन करेगी।
 हमारा विचार है कि उपरोक्त प्रस्तावों को भी क़ानून में शामिल कर लंबे समय तक बहुत सी समस्याओं से छुटकारा पाया जा सकेगा।

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यू सी सी – कहीं पे तीर कहीं पे निशाना , नहीं चलेगा कोई बहाना ।  https://tirangaspeaks.com/ucc-the-direction/?utm_source=rss&utm_medium=rss&utm_campaign=ucc-the-direction https://tirangaspeaks.com/ucc-the-direction/#respond Mon, 10 Feb 2025 08:02:30 +0000 https://tirangaspeaks.com/?p=161 भारतीय जनता पार्टी ने अपने पहले ही घोषणा पत्र में संविधान की अपेक्षा के अनुरूप यू सी सी लागू करने की घोषणा की थी। समय बीतता चला गया और बहुत देर से उत्तराखंड में इस संबंध में पहला कदम रखा गया। बहुत से विद्वानों के विचार, नुक्कड़ चर्चाओं के बाद इस संबंध में कमेटी की [...]

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भारतीय जनता पार्टी ने अपने पहले ही घोषणा पत्र में संविधान की अपेक्षा के अनुरूप यू सी सी लागू करने की घोषणा की थी। समय बीतता चला गया और बहुत देर से उत्तराखंड में इस संबंध में पहला कदम रखा गया। बहुत से विद्वानों के विचार, नुक्कड़ चर्चाओं के बाद इस संबंध में कमेटी की घोषणा सरकार द्वारा की गई जिसके बाद निरंतर व घटकों से चर्चा, जनता से राय शुमारी चलती रही और अंततः यू सी सी कमेटी की रिपोर्ट सरकार को साउंड दी गई और अति उत्साह पूर्वक इस रिपोर्ट को सरकार ने स्वीकृत कर क़ानून का रूप दे दिया । जिस तरह से जोशोर के साथ क़ानून का आग़ाज़ हुआ, उसने निहित विषय सामग्री को देख समझ प्रदेश में चर्चाओं का फोर चल निकला । निकलना स्वाभाविक था क्योंकि कई कहावत एक साथ चरितार्थ हो गई। पहली कहावत – खोदा पहाड़ निकली चुहिया । जिस बड़े क्रांतिकारी परिवर्तन की उम्मीद की जा रही थी , ऐसा कुछ विशेष नहीं हुआ। जितनी पड़ी जान प्रतिक्रिया की अपेक्षा थी , कहीं सुरसुराहट भी नज़र नहीं आयी माँओं तूफ़ान से पहली भी शांति थी और बाद में भी।दूसरी कहावत – कहीं पे तीर कहीं पे निशाना। संविधान की आत्मा और भारतीय बहुसंख्यक समाज की भावनाओं के अनुरूप क़ानून का जो प्रारूप सामने आया उससे निराशा और सरकार की मंशा पर शक स्वाभाविक रूप से सामने आ गया। पहली बात यू सी सी का अर्थ और अभिप्राय ही ऐसे क़ानून से है जो पूरे देश और समस्त नागरिकों पर एक समान लागू हो। कुछ नागरिकों को बाहर रखते हुए एक देश और एक क़ानून की धारणा ध्वस्त हो गई ।
ऐसी कई तकनीकी समस्या भी उत्पन्न हो गई जिससे कई परिस्थितियों में इसका पालन संभवतः न हो पाये। एक और किसी वर्ग की संस्कृति और प्रम्पराओं की धज्जियाँ उड़ी तो इसी नाम पर कुछ को क़ानून के दायरे से ही बाहर रखा गया । जिस समस्या से निजात पाने की आवश्यकता थी उसकी जंगल की आग की तरह नियंत्रण से बाहर हो जाने की स्थिति बनती दिखाई दे रही है। जिस विषय का यू सी सी के माध्यम से समाधान होना चाहिए था उल्टे उसे और गंभीर बना दिया गया । देखा जाय तो यू सी सी में हिंदू समाज के लिए कोई विशेष परिवर्तन की उम्मीद नहीं थी । ऐसा लग रहा था कि यू सी सी का उद्देश्य दूसरे वर्ग विशेषकर मुस्लिम वर्ग को भारत में एक समान क़ानून से मुख्य धारा से जोड़ने का था और वो प्रयास हुआ भी किंतु शायद तीर की गति और प्रभावी क्षेत्र इतना व्यापक हो गया कि जिस प्रदेश में यू सी सी ने जन्म लिया वहीं की संस्कृति को तार तार कर दिया । सारी मेहनत मानों विफलता में बदल गई। बेरोज़गारी की जनप्रतिक्रिय से अभी दामन छोटा भी न था कि एक दूसरी चिंगारी अनावश्यक ही सुलग उठी। लव जिहाद की जिस समस्या से पूरा प्रदेश सुलग रहा था यू सी सी ने मनों उसकी अनुज्ञप्ति ही जारी कर दी। शायद जनता के किसी भी वर्ग ने यह राय संबंधित कमेटी को न दी होगी कि लिव एंड रिलेशन को क़ानूनी मान्यता दे दी जाय। एक पक्ष द्वारा प्रतिक्रिया पर विचार हुआ होगा लेकिन लिव एंड रिलेशन विषय पर विचार करते हुए इसकी गंभीरता और दूरगामी प्रभाव को डर किनार कर दिया गया । अब जॉइन से क़ानून से लव जिहाद को रोका जाएगा ?
जिस संस्कृति का रोना रोकर जनता में रोष व्याप्त हो रहा था , बेटियाँ सूट केस में बंद हो रही थी , माँ बाप की नींद उड़ी रहती थी , यू सी सी में लिव एंड रिलेशन के प्रावधान को देखकर चाहती पीटने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा । उत्तराखण्ड विशेषकर देहरादून शिक्षा का मुख्य केंद्र होने के कारण यहाँ पूरे देश से युवक का आगमन होता है। यही वह उम्र होती है जब हमारे बच्चे स्वतंत्रता के एहसास को आरंभ करते हैं, क्या सीखकर जाएँगे यहाँ से ? संपन्न परिवारों की लड़कियों को संपत्ति के लालच में और अधिक लव जिहाद का सामना करना पड़ेगा। ग़रीब वर्ग की लड़कियाँ बाहर से आने वाले संपन्न परिवारों के लड़कों की तरफ़ धड़ल्ले से आकर्षित होंगी। कोई सामाजिक डर, दबाव काम नहीं करेगा। शासन लव बर्ड्स को सुरक्षा देने के लिए विवश होगा कोई आश्चर्य नहीं कि इससे देह व्यापार में भी वृद्धि हो जाय। कुँवारी माताओं की संख्या न चाहते हुए भी इस क़ानून का दंश झेलेगी। इस नियम के पक्ष में अभी तक कोई सामाजिक विद्वान/शास्त्री सामने नहीं आया ही जिसने सरकार के इस निर्णय पर सकारात्मक टिप्पणी की हो। एक चिंगारी को दावानल में बदलते देर नहीं लगती वैसे भी सरकार के साथ बहुत दी समस्यायें लगी रहती हैं। उत्तराखण्ड की जनता वैसे भी किसी न किसी समस्या से त्रस्त होकर आंदोलित रहती है ऐसी परिस्थिति में यदि कोई लव जिहाद जैसी घटना हो गई तो स्थिति नियंत्रण से बाहर होते देर नहीं लगेगी। विषय जनभावनाओं से जुड़ा होने के कारण अत्यंत संवेदनशील है। सरकार को समय रहते इस पर विचार कर यू सी सी में लिव एंड रिलेशन में किए प्राविधानों को निरस्त कर देना चाहिए जो इस देव भूमि की संस्कृति और संस्कारों को कभी स्वीकार्य नहीं हो सकता।

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सावधान! अतिक्रमण से हम देश में अराजकता की ओर बढ़ रहे हैं। https://tirangaspeaks.com/attention-encroachment/?utm_source=rss&utm_medium=rss&utm_campaign=attention-encroachment https://tirangaspeaks.com/attention-encroachment/#respond Fri, 07 Feb 2025 17:41:14 +0000 https://tirangaspeaks.com/?p=158 आजकल देश में जहां देखो वहां कुछ लोग नित नए नए आंदोलन के लिये तैयार रहते हैं। कोई आरक्षण मांगने के लिये तो कोई हटाने के लिये। कोई नोकरी मांग रहा है कोई नोकरी जाने पर बवाल किये हुए है और जिन्हें नोकरी मिली है वो अपने वेतन भत्तों को बढ़ाने के लिये आसान लगाए [...]

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आजकल देश में जहां देखो वहां कुछ लोग नित नए नए आंदोलन के लिये तैयार रहते हैं। कोई आरक्षण मांगने के लिये तो कोई हटाने के लिये। कोई नोकरी मांग रहा है कोई नोकरी जाने पर बवाल किये हुए है और जिन्हें नोकरी मिली है वो अपने वेतन भत्तों को बढ़ाने के लिये आसान लगाए बैठे हैं। अपनी मांगे मनवाने के लिये सार्वजनिक संम्पत्ति को नुकसान, सभ्य नागरिकों का जीना दूभर करना और देश में निर्माण की गति को ठप्प कर देना तो शायद इन लोगो का हथियार बन गया है। हमने भू माफिया का नाम सुना था और एक दबंग रसूखदार की कल्पना की थी जो येन केन प्रकरेण लोगों की भूमि पर कब्जा कर लेता है लेकिन अब पता चल रहा है कि इस कार्य के लिये आपको माफिया बनने की भी आवश्यकता नही है। बस थोड़ा सा चालाकी से काम करने की आवश्यकता है और थोड़ी सी अधिकारियों अथवा जनप्रतिनिधियों की सेवा। बस जहां जुगाड़ भिड़ जाए एक बार अड्डा जमा लीजिए। धीरे धीरे अपने रिश्तेदार और मिलनेवालों को बुलाते रहिये बस बस गया आपका गांव/शहर। अब कभी किसी ने आपके इस अवैध अतिक्रमण के विरुद्ध आवाज उठाने की कोशिश भी की तो तुरंत छाती पीटना शुरू कर दीजिए। देशभर के क्या विफेशों से भी आपके मुफ्त के हमदर्दीये आपके साथ विलाप करने लगेंगे। किराए के रुदालियों का इतना जोर शोर से संगठित विलाप होगा कि सरकार की चूलें हिल जाएंगी।अदालतें मोम्म की तरह पिघलने लगेंगी। मानवता दर्द से कराह उठेगी। जनता असमंजस में आंखे फाड़कर प्रश्नसूचक निगाहों से एक दूसरे को देखने लगेगी। धरती फट जाएगी अम्बर बरसने लगेगा किंतु आप तक आंच नही आ पाएगी। वाह ऐसा शरीफ़ाना खेल भला कहीं और देखने को मिलेगा? सरकारें सोती रही और इस अराजकता के खेल ने देश का कोई शहर कोई रास्ता नहीं छोड़ा जहां अवैध अतिक्रमण ने अपने पैर न फैला लिए हों। अब अगर सरकार जागने का प्रयास भी करे तो कानून व्यवस्था का ऐसा प्रश्न खड़ा कर दिया जाएगा कि सरकार के हाथ पांव फूल जायेगें। किस किस के आंदोलन को सुलझाए।

क्या इस स्थिति का अंतिम पड़ाव अराजकता है? जी हां यदि देश के कानूनों की यही लचर स्थिति रही। इस देश का सभ्य नागरिक भी यह सब देखकर आंखे मूँदता और मुहं बंद रखता रहा तो निश्चित रूप से देश में अराजकता फैल जाएगी।जिसकी लाठी जहां चलेगी वहीं उसका कब्जा हो जाएगा। ऐसी स्थिति बहुत दूर दिखाई नही देती इसलिये बचना है तो जनता को ही आंखें खोलनी होगी। हाथ उठाकर अपनी आवाज़ कानून के समर्थन में उठानी पड़ेगी। रोटी कपड़ा मकान सबका हक है लेकिन यह हक किसी से छीनकर नही लिया जा सकता। यदि कोई आवास हींन है, अक्षम है उसका अधिकार है कि सरकार से अपने पुनर्वास की मांग करे। सरकार और जनता का कर्तव्य है कि उसे उसका अधिकार मिले लेकिन किसी भी स्थिति में कानून से खिलवाड़, देश के संसाधनों की लूट किसी भी प्रकार से क्षमा योग्य नही हो सकती। मानवता और मौलिक अधिकारों की आड़ में कानून को असहाय नही बनाया जा सकता। आज आप पूर्व को रो रहे हैं कल आप पूर्व हो जाएंगे आखिर कंधों से कंधों का यह बॉलीबॉल का खेल कब तक चलेगा?कहीं से तो सिरा पकड़ना होगा। किसी को तो शुरुवात करनी होगी। आइए एक आवाज अवैध अतिक्रमण के खिलाफ भी बुलंद करें। सरकार औऱ उसके भ्रष्ट कर्मचारियों को उत्तरदायी बनाये देश को देश बनाये स्लम्स का द्वीप नही। जो पात्र है उसकी मदद हो लेकिन जो चोर है उसे बख्शीश क्यों?

 

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गेर क़ानूनी घुसपैठ – एक अपराध https://tirangaspeaks.com/illegal-cross-border-entry/?utm_source=rss&utm_medium=rss&utm_campaign=illegal-cross-border-entry https://tirangaspeaks.com/illegal-cross-border-entry/#respond Fri, 07 Feb 2025 17:32:01 +0000 https://tirangaspeaks.com/?p=154 यद्दपि कोई भी देश अपनी सीमा में बिना अनुमति घुसने को अपराध मानता है। कुछ परिस्थितियों में तो गोली तक मार दिये जाने अथवा पूरी ज़िंदगी जेल में डाल दिये जाने का प्रविधान है। इसे अंतर्राष्ट्रीय आचरण कहें अथवा संबंधित सरकार सत्कर्म कि पकड़े गये घुसपैठियों को उनके मूल देश को वापस भेज दे । [...]

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यद्दपि कोई भी देश अपनी सीमा में बिना अनुमति घुसने को अपराध मानता है। कुछ परिस्थितियों में तो गोली तक मार दिये जाने अथवा पूरी ज़िंदगी जेल में डाल दिये जाने का प्रविधान है। इसे अंतर्राष्ट्रीय आचरण कहें अथवा संबंधित सरकार सत्कर्म कि पकड़े गये घुसपैठियों को उनके मूल देश को वापस भेज दे । यदि ऐसे घुसपैठिए सही सलामत वापस कर दिये जायें तो उसे उस देश की भलमनसाहत ही कहा जायेगा। घुसपैठिए वैसे तो कई प्रकार के होते गहैं और उनके दूसरे देश में बिना अनुमति प्रवेश के अलग अलग कारण होते हैं। शरणार्थी इससे अलग होते हैं। कुछ घुसपैठिए आपराधिक परवृत्ति के होते हैं जिनके अवेध प्रवेश के पीछे कोई न कोई बड़ा अपराध होता है जैसे स्मगलिंग , हत्या अथवा आतंक । कुछ क़ानूनी सजा से बचने के लिए दूसरे देश में भाग जाते हैं तो कुछ सरकारों के छिपे एजेंडे को पूरा करने के लिए भी अपनी पहचान बदलकर दूसरे देश में घुस जाते हैं। घुसपैठियों का एक बहुत बड़ा भाग ऐसे लोगों का होता है जो अधिक धन कमाने के चक्कर में दूसरे देशों का रुख़ करते हैं। यदि संबंधित देश का वीज़ा न मिले तो ये लोग विभिन्न हथकंडों का प्रयोग करते हैं। ऐसी घुसपैठ के पीछे मानव तस्करी / कबूतर बाज़ी में लगे एजेंट मुख्य कारण होते हैं। ये एजेंट मोटी रक़म लेकर गेर क़ानूनी तरीक़े से इच्छुक व्यक्ति को दूसरे देश में घुसा देते हैं फिर यह घुसपैठिए अपनी पहचान छिपाकर जब तक संभव हो वहाँ कार्य करते रहते हैं। देखा गया है कि ऐसे घुसपैठियों का जीवन बहुत मुश्किलों भरा रहता है। बिना अनुमति घुसपैठ करने वाले नागरिक का सबसे बड़ा पहलू यह है कि वह ऐसा कर सबसे पहले अपने देश को बदनाम करते हैं । ऐसा संदेश जाता है मानो उस देश में वो भूखों मर रहे हैं अथवा उनके जीवन को गंभीर ख़तरा उत्पन्न हो गया हो। कभी कभी उनके इस अपराध में पहले से विदेश में रह रहे उनके रिश्तेदार अथवा परिचित भी सहयोग करते हैं।किसी भी दशा में बिना अनुमति किसी देश में घुसना अपराध की श्रेणी में ही समझा जाएगा जिसे कोई भी देश सहज स्वीकार नहीं करता और इस अपराध से कठोरता से निपटता है। बहुत समय से यही समस्या हमारे देश में भी गंभीर रूप धारण किए हुए है इसमें अधिकतर बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठिए स्थिति को गंभीर बनाये हुए हैं। अपराध की गंभीरता और देश पर पड़ने वाले विपरीत प्रभाव को देखते हुए भी हमारे ही देश के नेता ऐसी घुसपैठ को समर्थन देते हैं । देश कमजोर नहीं, सरकार भी कमजोर नहीं लेकिन हमारे ही अपने हमें निर्बल बनाये हुए हैं । यहाँ तक कि देश की सुरक्षा और डामोग्राफी को भी गंभीर चुनौती उत्पन्न हो रही है। सीधी सी बात है कि ऐसे घुसपैठिए देश के अपराधी हैं और कठोर कार्यवाही के साथ उनके देश को वापस ज़बरदस्ती भेज दिये जाने के पात्र हैं। देश की सरकार चाहे तो इससे आगे भी कठोर कार्यवाही कर सकती है और इसके लिए कोई अन्य सरकार प्रतिरोध करने की अधिकारी नहीं है। अमेरिका द्वारा अपने देश में रह रहे अवेध भारतीयों को वापस भारत भेजने पर आजकल विभिन्न प्रतिक्रियाएँ देखने को मिल रही हैं। अपने नागरिकों द्वारा ऐसा अपराध करने पर शर्मिंदा होने के स्थान पर हिंदुस्तान की बेइज्जत्ति की दुहाइयाँ दी जा रही हैं। हथकड़ी लगाने पर विरोध प्रकट किया जा रहा है। भला हमारे विपक्ष से कोई पूछे कि अपराधियों को कैसे रखा जाना चाहिए? ऐसा कौन सा सम्मानित कार्य ऐसे नागरिकों द्वारा किया गया है जिसके कारण उन्हें सम्मान दिया जाना चाहिए? वास्तविकता यह है कि उन्होंने देश की छवि ख़राब कर अपने देश के प्रति भी अपराध किया है जिसके कारण वो किसी सहानुभूति के पात्र नहीं बल्कि उचित सजा के पात्र हैं। ऐसे में सरकार से विशेष मदद की गुहार लगाना मुझे तो हास्यास्पद और आश्चर्यजनक ही लगता है। क्या हम स्वयं पीड़ित होते हुए भी ऐसे अपराध को सामान्य रूप से ले सकते हैं। देश की छवि ख़राब करना कोई छोटा अपराध नहीं कहा जा सकता। ऐसे घुसपैठियों से देश के प्रति किसी प्रेम की अपेक्षा करना भी उचित नहीं होता। अमेरिका यदि अपराधियों को हथकड़ी लगाकर अपराधियों की भाँति सुपुर्द करता है तो इसमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए बल्कि यदि अमेरिका चाहे तो इसके लिए खर्च किए धन की भी माँग कर सकता है। भारत को बिना संकोच अपने नागरिकों को वापस स्वीकार करना चाहिए। लेकिन भविष्य में कोई भारतीय ऐसा अपराध न करे इसके लिए भी उचित कदम उठाए जाने चाहिए। अब सही समय है, मौक़ा भी है और दस्तूर भी। भारत में रह रहे अवेध घुसपैठियों को ढूँढ ढूँढ कर उन्हें उनके देश को डिपोर्ट कर दिया जाना चाहिए । घुसपैठियों के एक बड़े भाग द्वारा भारत में अवेध तरीक़ों से आधार प्रमाणपत्र प्राप्त कर लिये गये हैं । देश हित में नागरिक प्रमाणपत्रों की गहन जाँच कर सभी घुसपैठियों की पहचान कर ली जानी चाहिए। मतदाता सूचियों में बढ़ाये गये नागरिकों की विशेष पहचान होनी चाहिए और यदि कोई भारतीय क्रमचारी/नागरिक की ऐसे अपराध में संलिप्तता पायी ज़ाय तो उसके विरुद्ध भी कठोर कार्यवाही की जानी चाहिए। कार्यवाही टुकड़ों में नहीं बल्कि एक निश्चित समय से पूरे देश में शुरू कर लक्ष्य प्राप्ति कर चलायी जानी चाहिए। सरकार किसी भी घुसपैठिए को पकड़ने में सहायता करने पर नागरिकों को उचित उपहार की घोषणा कर दे तो शायद एक माह के अंदर ही सारे घुसपैठिए पकड़े जा सकते हैं। घुसपैठ एक देश व्यापी समस्या है जो देश को कई प्रकार से कमजोर करने के साथ राष्ट्र की सुरक्षा और संप्रभुता पर प्रश्न खड़े करती है। इस विषय पर कोई राजनीति नहीं होनी चाहिए और न ही किसी स्तर पर स्वीकार्य होनी चाहिए।घुसपैठ को किसी प्रकार का समर्थन देश द्रोह है इसे उसी संदर्भ में देखा जाना उचित होगा।

 

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अनेक समस्याओं का एक निदान । https://tirangaspeaks.com/onesolutionofallproblems/?utm_source=rss&utm_medium=rss&utm_campaign=onesolutionofallproblems https://tirangaspeaks.com/onesolutionofallproblems/#respond Wed, 05 Feb 2025 16:48:20 +0000 https://tirangaspeaks.com/?p=100 समस्याएँ सामने आना जहां प्राकर्तिक नियम है वहीं समस्या का हल भी समस्या के आस पास ही होता है। लेकिन अक्सर हम लोग समस्या को समूल नष्ट करने और उसका हल करने के बजाय उसका अधूरा आँकलन और अस्थायी निवारण करते हैं। सर अथवा पेट में दर्द हुआ नहीं कि बस उससे आराम की गोली [...]

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समस्याएँ सामने आना जहां प्राकर्तिक नियम है वहीं समस्या का हल भी समस्या के आस पास ही होता है। लेकिन अक्सर हम लोग समस्या को समूल नष्ट करने और उसका हल करने के बजाय उसका अधूरा आँकलन और अस्थायी निवारण करते हैं। सर अथवा पेट में दर्द हुआ नहीं कि बस उससे आराम की गोली ढूँढ ली जाती है और दर्द का मूल कारण ज्यों का त्यों बना रहता है। नतीजा दर्द बार बार होता रहता है।

अपने भारत वर्ष में भी समस्याओं की कमी नहीं। जनता दुखों से त्रस्त है तो सरकार इलाज के तरह तरह के प्रयोग करती रहती है। देश को आज़ाद हुए ७५ वर्ष हो गये लेकिन कोई सरकार देश से ग़रीबी हटाने में कामयाब नहीं हो सकी। देश ने बहुत उन्नति कर ली। चारों तरफ़ सड़कों, रेलवे, पुलों का जाल, बड़े बड़े कारख़ानों से बढ़ती जी डी पी। विदेशों में डंका सब कुछ हासिल कर लिया लेकिन आज भी ८० करोड़ जनता को मुफ़्त राशन बाँटना पड़ता है। फ्री की बिजली पानी देनी पड़ती है जिसका सीधा सा अर्थ है कि आज भी देश में लगभग ८० करोड़ जनता आत्म निर्भर नहीं है। आज भी इतने लोग अवसर विहीन होकर ग़रीबों की श्रेणी में आते हैं। आख़िर ऐसा क्यों है कि सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद देश से ग़रीबी नहीं जाती। देश की बड़ी जनता के पास आज भी संसाधनों की कमी रहती है। बड़े बुजुर्ग तो यहाँ तक कहते हैं कि पहले के समय में बहुत सकूँ था , ऐसी मारा मारी नहीं थी। समस्या अपने आप में गंभीर है फिर भी इसके निदान के लिये सरकार को दोष देना उचित नहीं होगा ।

ऐसा भी नहीं कि पढ़े लिखे नागरिक और सरकार इस समस्या के मूल कारण से अनभिज्ञ हों। सरकार की हालत उस पिता जैसी है जिसके पास संसाधन सीमित हों लेकिन उसका परिवार बड़ा होकर उसकी कमर तोड़ रहा हो। जब संसाधन सीमित हों तो बढ़े खर्चे विकास को रोक देते हैं। दरअसल सारी समस्या का उल्लेख डारविन बहुत पहले कर चुके हैं। सीमित स्थान, सीमित संसाधन के चलते बढ़ती जनसंसंख्या द्वारा बेतहाशा खपत में वृद्धि। आख़िर संतुलन बिगड़ना तय है। जनसंख्या वृद्धि संसाधन वृद्धि से अधिक रहेगी तो आवश्यकताओं की पूर्ण पूर्ति नहीं हो सकती। भोजन सीमित हो तो किसी न किसी को भूखे सोना ही पड़ेगा। संसाधन बढ़ने की भी सीमा है तो कुछ को बेरोज़गार भी रहना पड़ेगा ।और आवश्यकता पूरी न हुई तो फिर संघर्ष भी अवश्यंभावी होगा। स्थान का क्षेत्रफल हम बढ़ा नहीं सकते। संसाधन भी एक सीमा से अधिक नहीं बढ़ाये जा सकते। अब एक ही उपाय बचता है कि हम अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखने के लिए जनसंख्या नियंत्रण पर विशेष ध्यान दें।

अब कहा जाएगा कि सरकार तो आज़ादी के बाद से ही जनसंख्या नियंत्रण के लिए परिवार नियोजन को प्रोत्साहित कर रही है। ठीक है ६० वर्षों तक इलाज करने के बाद भी मिली असफलता इस बात का प्रमाण है कि उपाय कारगर नहीं था। फिर क्या करें? प्रोत्साहन और निवेदन का परिणाम हम देख चुके हैं। देश की डैमोग्राफ़ी में बड़ा परिवर्तन होकर देश में ग्रह युद्ध की स्थिति तक की नौबत आ चुकी है। अब इस समस्या का एक ही निदान है और वो है कठोर जनसंख्या क़ानून। कई बार प्रजातंत्र भी दंड के बिना नहीं चलता। ऐसा कौन सा नियम क़ानून है जिसे सरकार बनाकर पालन नहीं कर सकती? लेकिन सरकार की ढुलमुल नीति और प्रयोग करने की आदत अभी भी समस्या के प्रति लापरवाहीं का संकेत कर रही है। क्यों किसी एक राज्य में प्रयोग कर विषय को टाला जा रहा है? क़ानून भी बनाया गया और फिर ढाक के तीन पात हुए तो देश से ग़रीबी, अशिक्षा और बेरोज़गारी कभी दूर नहीं होगी। स्थिति नाज़ुक है और किसी देर से भारी अपूरणीय क्षति से इंकार नहीं किया जा सकता। इसलिए निम्न प्रस्तावों के साथ केंद्र सरकार को निडरता के साथ पूरे देश में जनसंख्या नियंत्रण क़ानून लागू करना चाहिए।

१ दो से अधिक बच्चे पैदा करने वाले किसी भी नागरिक को सरकारी नौकरी, सरकारी योजनाओं के आर्थिक लाभ, कोई भी चुनाव लड़ने व मताधिकार के प्रयोग से वंचित कर देना चाहिए।

२ एकल बच्चा दंपत्ति को सरकारी नौकरी में वरीयता देनी चाहिए।

३ परिवार नियोजन का पालन करना राष्ट्रीय दायित्व घोषित कर किसी भी प्रकार का प्रलोभन न दिया जाये।

४ प्रत्येक बच्चे का १८ वर्ष तक स्कूल जाना क़ानून आवश्यक किया जाय जिसके अनुपालन की ज़िम्मेदारी माता पिता/ अभिभावक की हो और पालन न करने की स्थिति में कठोर दंड का प्रावधान किया जाये।

५ मताधिकार के लिए न्यूनतम शिक्षा हाई स्कूल की जाये। अनपढ़ लोग सरकार चुनेंगे तो सरकार भी अयोग्य चुनी जाएगी। देश शिक्षित बनेगा तो ही उन्नति करेगा।

६ इसके साथ ही हाई स्कूल तक शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा का मुफ़्त प्रबंधन हो।

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जातिवाद और क्षेत्रवाद का भेद , कथनी और करनी । https://tirangaspeaks.com/castismkesherwaad/?utm_source=rss&utm_medium=rss&utm_campaign=castismkesherwaad https://tirangaspeaks.com/castismkesherwaad/#respond Wed, 05 Feb 2025 16:11:38 +0000 https://tirangaspeaks.com/?p=97   वैसे तो हमारा देश राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत नागरिकों से भरा पड़ा है लेकिन यदि उत्तराखण्ड की बात करें तो शायद यह प्रदेश देश सेवा में अग्रणी निकले। पहाड़ का शायद ही कोई परिवार होगा जिसके किसी न किसी सदस्य ने किसी न किसी सैनिक बल के माध्यम से देश की सेवा न की हो [...]

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वैसे तो हमारा देश राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत नागरिकों से भरा पड़ा है लेकिन यदि उत्तराखण्ड की बात करें तो शायद यह प्रदेश देश सेवा में अग्रणी निकले। पहाड़ का शायद ही कोई परिवार होगा जिसके किसी न किसी सदस्य ने किसी न किसी सैनिक बल के माध्यम से देश की सेवा न की हो । राजनीति की बात करें तो भी इस प्रदेश का योगदान किसी से कम नहीं । गोविंद बल्लभ पंत, हेमवतिनंदन बहुगुणा , नारायण दत्त तिवारी जैसे प्रखर नेता हमारे देश को इसी प्रदेश की देन है।

पहले ऐसा सुनने में बहुत कम आता था कि जनता और नेता किसी जाति विशेष अथवा क्षेत्र विशेष के नाम पर राजनीति करें लेकिन इधर कुछ वर्षों से इसका चलन बढ़ता जा रहा है। नेहरू सरकार ने भले ही क्षेत्र विशेष को कुछ विशेष अधिकार देकर इस राजनीति के बीज बहुत पहले ही बो दिये हों लेकिन लंबे समय तक देश ऐसी भावना को दरकिनार करता रहा । आरक्षण के नाम पर भले किसी समुदाय को मुख्य धारा से अलग रखा गया हो परंतु किसी भी समुदाय में घृणा का स्थान कभी बन नहीं पाया । धीरे धीरे देश में राजनीतिक महत्वाकांक्षा के बढ़ते नये नये छोटे राजनीतिक दलों का आगमन हुआ जिनकी राजनीतिक सोच राष्ट्र से संकुचित होकर प्रदेश तक सिमट गई और आगे जो राजनीतिक विकास हुआ उसने राजनीति का दायरा बेहद सिकोड़कर जातिगत , धार्मिक और क्षेत्र विशेष तक छोटा कर दिया ।

आज गिने चुने राजनेता हैं जो अपना राष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव रखते हैं। अन्यथा कोई मुस्लिम नेता है तो कोई दलित की राजनीति करता है। कोई खलिस्तान की बात करने में गर्व महसूस करता है तो कोई चीन पाकिस्तान को अपना माई बाप समझकर भारत की और आँखें तरेरता दिखायी देता है। जातिवाद, धर्म और क्षेत्र हमारे चुनाव जीतने के आधार बन रहे हैं । कोई साम्यवाद की बात करता है तो कोई अपने को समाजवादी कहकर गर्व का अनुभव करता है। गांधी जी , राजा राम मोहन राय, आज़ाद और भगत सिंह के आदर्शों की दुहाई देने वाले राष्ट्र को भूलकर अपनी जाति पर केंद्रित होते जा रहे हैं।आरक्षण के नाम पर अनगिनत जातीयाँ आपस में भेद भाव कर रही हैं। आश्चर्य और दुख की बात यह है कि छोटे राज्य भी अपनी ही सीमा में क्षेत्रवाद , जातिवाद और धार्मिक भेदभाव का शिकार हो रहे हैं । स्वर्ग से यह नजारा देख हमारे संविधान के निर्माता और मूल विचारक कितनी लज्जा महसूस करते होंगे जिन्होंने संविधान का आरंभ ही “हम भारत के नागरिक” से करते हुए भारत के किसी भी नागरिक को भारत में कहीं भी रहने और कारोबार करने की स्वतंत्रता दी थी । शायद ही कोई सच्चा भारतीय नागरिक होगा जो कश्मीर की इसी दशा के दुष्परिणामों से खुश होता हो। सरकार ने कश्मीर से धारा ३७० और ३५ ए हटा दी तो पूरा देश ख़ुशी से झूम उठा। स्पष्ट था कि हमारी अंतरात्मा कश्मीर की उस अलगाववादी सोच को स्वीकार नहीं कर रही थी ।

यदि आपसे कोई पूछे कि आप कहाँ के नागरिक हो तो गर्व से कहते हो “ भारत के” फिर आपका राज्य , आपका क्षेत्र और आपकी जातीय पहचान कहाँ छुप जाती है? क्या एक राज्य में रहते हुए आपका किसी दूसरे राज्य से कोई संबंध नहीं ? क्या उत्तर दक्षिण पूरब और पश्चिम के बीच कोई सीमाएँ निर्धारित हैं? जरा सोचिए , उत्तराखण्ड के जन्म की तो बात छोड़ दीजिए , आज़ादी से भी पूर्व क्या इस प्रदेश में दूसरे राज्यों के निवासी निवास एवं रोज़गार नहीं करते थे ? क्या यहाँ के निवासी दूसरे राज्यों के स्थानों पर रोज़गार की तलाश में पलायन नहीं करते थे ? क्या यह सिलसिला अब रुक गया है? राज्य की सीमाओं को सील करने, राज्य में ही दो क्षेत्रों गढ़वाल और कुमायूँ को वैचारिक स्तर पर अलग करने, ब्राह्मण और राजपूत की राजनीति करने, नागरिकों को पहाड़ी और देशी में विभक्त करने से आप कौन सी फसल उगा रहे हैं । अपने ही देश से लगभग दूर हो जाना चाहते है ? प्रदेश को और कितने टुकड़ों में बाँटना चाहते हैं। देश में हिंदू राष्ट्र और हिंदू एकता की बात करने वाले अपने ही परिवार को खोखला कर कमजोर करने पर तुले हैं ।

इतिहास देखिए और बताइए कि क्या देहरादून को बनानेवाले आचार्य द्रोण और गुरु राम राय अपने को पहाड़ी मानकर बसाने आये थे । और अन्य महापुरुषों की बात करें तो क्या उन्होंने भी ऐसा ही सोचा था ?

यह सोच केवल उत्तराखंड में पैदा हो रही हो , ऐसा बिलकुल नहीं है बल्कि पूरे देश में यही नफ़रत की फसल उगाई जा रही है। देश को एक दो नहीं हज़ारों टुकड़ों में बाँटने की साजिस अपना काम कर रही है। उत्तराखण्ड एक देवभूमि है जहां से संस्कारों की गंगा बह कर पूरे देश को पवित्र करती है। प्रदेश सांस्कृतिक रूप से देश का नेतृत्व करता है फिर ऐसा सांस्कृतिक प्रदूषण हमें कहाँ लेकर जाएगा ? जैसा मैंने पहले कहा कि इस प्रदेश का एक एक परिवार अपने भारत देश के लिए जान छिड़कता है। सेना के सर्वोच्च अधिकारी हमारे इसी प्रदेश का प्रतिनिधित्व करते हैं। एक और हम पी ओ के को भारत में मिलाने की बात करते हैं और दूसरों और ख़ुद को ही भारत से दूर कर लेना चाहते हैं ।

टी वी पर उत्तराखंड के समाचार देख सुन रहा था । दिल के कोनों में समाचार सुन अफ़सोस और दुख हो रहा था। में स्वयं ५० वर्षों से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भा ज पा ( पहले जन संघ ) से वैचारिक रूप से जुड़ा हूँ लेकिन कभी ऐसी स्थिति नहीं देखी । क्या बेटा बड़ा होकर यूँ ही बाप के ओचित्य को चुनौती देता है? यदि ऐसा है तो हम किस संस्कृति का रोना रोते हैं ? संगठन के पद हों अथवा चुनाव के प्रत्याशी , संघ और पार्टी संगठन के मतभेद खुलकर सामने आना निश्चय ही चिंता में डालने वाला है। एक अर्ध शताब्दी के बाद भारत की जनता को स्वाभिमान और अभिमान की अनुभूति हुई है। देश विश्वगुरु बनने का आकांक्षी है। यदि इस तरह के मतभेद बढ़ते रहे तो देश की बर्बादी इसी के सुपुत्रों द्वारा लिखी जाएगी ।

आइये अपने मन के भीतर झांकिये वहाँ एक सच्चा देश भक्त और देव पुरुष बैठा है। उसे पहचानिए , उसका निरादर मत करिए । वो आपकी आत्मा है उसके बिना जीवन का कोई अर्थ नहीं है। जातिवाद , क्षेत्रवाद जैसी संकुचित सोच से बाहर निकलये । कुछ बड़ा बनिये , बड़ा करिए । बड़े परिवार की महत्ता को समझये। देश ही हमारा परिवार, नगर, क्षेत्र और प्रदेश है। भारतीय हमारी नागरिकता है, सोच और संस्कृति है। यही हमारी जाति और पहचान है। जो आगे बढ़ेगा देश के लिए करेगा । देश है तो हम हैं । इसे वैचारिक, भाषाई, सांस्कृतिक , क्षेत्र और जातियों में बाँटकर कमजोर मत कीजिए ।

हमे देश में कहीं भी बसने और रहने का अधिकार है तो दूसरों को भी हमारे यहाँ उतना ही सम्मान मिलना चाहिए ।यदि उत्तराखण्ड से जाकर उत्तर प्रदेश में योगी जी देश का नाम रोशन कर सकते हैं , गुजरात से आदरणीय मोदी जी, अमित शाह , मध्यप्रदेश से शिव राज सिंह चौहान , हरियाणा के देवी लाल , दक्षिण से आदरणीय निर्मला सीता रमन , महाराष्ट्र , आसाम और कर्नाटक के अनेक नेता देश की सेवा कर सकते हैं , उत्तराखण्ड के श्री अजीत डोभाल, विपिन रावत और अन्य बहुत से नायक देश की सुरक्षा की गारंटी दे सकते हैं तो आप भी ऐसे ही चरित्रों का अनुशासनात्मक कर देश के निर्माण में अपनी भूमिका निभा सकते हैं।

 

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देश चाहिए या प्रदेश ? https://tirangaspeaks.com/%e0%a4%a6%e0%a5%87%e0%a4%b6-%e0%a4%9a%e0%a4%be%e0%a4%b9%e0%a4%bf%e0%a4%8f-%e0%a4%af%e0%a4%be-%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%a6%e0%a5%87%e0%a4%b6/?utm_source=rss&utm_medium=rss&utm_campaign=%25e0%25a4%25a6%25e0%25a5%2587%25e0%25a4%25b6-%25e0%25a4%259a%25e0%25a4%25be%25e0%25a4%25b9%25e0%25a4%25bf%25e0%25a4%258f-%25e0%25a4%25af%25e0%25a4%25be-%25e0%25a4%25aa%25e0%25a5%258d%25e0%25a4%25b0%25e0%25a4%25a6%25e0%25a5%2587%25e0%25a4%25b6 Thu, 30 Jan 2025 16:38:32 +0000 https://tirangaspeaks.com/?p=90 प्रकृति का नियम है कि पृथ्वी पर विभिन्न समुदाय अपने सर्वाइवल के लिये संघर्ष करते रहें और सभ्य समाज का मंत्र है कि एक होकर सभी समस्याओं का हल खोजें । यही भारत था जो एक होकर अंग्रेजों से लड़ रहा था। कोई पंजाब से तो कोई बंगाल से , कश्मीर से कन्याकुमारी तक सबका [...]

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प्रकृति का नियम है कि पृथ्वी पर विभिन्न समुदाय अपने सर्वाइवल के लिये संघर्ष करते रहें और सभ्य समाज का मंत्र है कि एक होकर सभी समस्याओं का हल खोजें । यही भारत था जो एक होकर अंग्रेजों से लड़ रहा था। कोई पंजाब से तो कोई बंगाल से , कश्मीर से कन्याकुमारी तक सबका एक ही ध्येय था । हमारा भारत। आज़ाद हुआ तो सारी सल्तनतें भी भारत के तिरंगे की शरण में आ गई। लेकिन उसके बाद मानों भारत को किसी की नज़र लग गई। देश में भाषाई और सांप्रयदिक उन्माद ने ऐसा जन्म लिया कि हमारी सोच संकुचित होती चली गई। देश में प्रदेशों की स्थापना प्रशासनिक व्यवस्थाओं को सुचारू करने के लिए संघीय ढाँचे के स्वरूप में हुई थी न कि किसी विशेष संप्रदाय, भाषा अथवा क्षेत्र के आधार पर। पहाड़ भी हमारे थे, मैदान ,पठार, जंगल , नदियाँ और समुद्र भी हमारे थे। देश में अपने संविधान का निर्माण हुआ तो देश के सभी नागरिकों को समान अधिकार मिले।

कश्मीर में धारा ३७० और ३५ए के अनुमोदन ने सभी प्रदेशों में इसी तरह के क़ानून के चलन को प्रोत्साहित कर दिया फिर वो हिमाचल, उत्तराखण्ड हो या उत्तर पूर्वी राज्य अथवा कोई अन्य राज्य , किसी न किसी रूप में क्षेत्रवाद का जन्म हुआ है।इसी के साथ अवसरों के बँटवारे के लिए सभी जातियों में भी अपने लिए संघर्ष की भावना जगी है। तेरा मेरा की सभ्यता ने कहीं न कहीं देश को अनेक विचारधाराओं में बाँट कर रख दिया।जहां यह स्थिति देश की संप्रभुता के लिये विनाशकारी है वहीं कुछ मौलिक अधिकारों की अवहेलना क्षेत्रीय स्तर पर असंतोष का कारण बन रही है। देश में विविधता के चलते अधिकांश कमजोर व माध्यम वर्ग अपने ही क्षेत्र में नौकरी और व्यवसाय करना चाहता है । इसके पीछे उसकी संस्कृति, प्राकृतिक वातावरण और धन की कमी भी बड़ा कारण है। ऐसे में यदि मूल निवास का प्रश्न उठता है तो उसे उचित ही कहा जायेगा। यदि स्थानीय संसाधनों पर भी स्थानीय युवाओं को स्थान न मिले और उस प्राथमिकता को भी दूसरे क्षेत्रों के संपन्न व्यक्ति छीन ले तो निश्चित रूप से मूल निवासी अपने को ठगा महसूस करेगा। इसलिए जनहित में कम से कम ५०% अवसर मूल निवासियों को मिलने चाहिए लेकिन न्याय हित में न्यूनतम निश्चित अवधि से प्रदेश में निवास कर रहे और शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए।

जहां तक भू क़ानून का प्रश्न है ऐसा क़ानून कहीं भी देश हित में नहीं है। हाँ इसे सीमित रूप में लागू किया जा सकता है। जरा सोचिए यदि कठोर भू क़ानून सभी प्रदेश समान रूप से लागू कर दे तो कितनी भयानक स्थिति हो सकती है। कल व्यापार पर भी ऐसे क़ानून की तरह माँग उठने लगे और सरकार मान भी ले तो सभी प्रदेशों में किसी न किसी उपभोक्ता वस्तु का अकाल पड जाएगा। दूसरी और अपनी आवश्यकता और परिस्थितियों के कारण मजबूर लोगों को स्थानीय भू माफिया के अलावा कोई ख़रीदार नहीं मिलेगा ।ऐसी स्थिति में उसे वाजिब दाम नहीं मिलेंगे और स्थानीय भूमाफिया उसका शोषण करेंगे। उचित है कि केवल अधिसूचित क्षेत्र में ही निश्चित सीमा तक दूसरे प्रदेश के निवासियों को भूमि ख़रीदने की अनुमति दी जाय बशर्ते उससे उस स्थान की प्रकृति में कोई परिवर्तन न हो। देश के प्रत्येक नागरिक को देश के किसी भी हिस्से में निवास करने के मौलिक अधिकार का तो कम से कम सम्मान होना ही चाहिए। विश्व में प्रकृतिकऔर खगोलीय स्थितियाँ तेज़ी से बदल रही हैं। भारत भी उससे अछूता नहीं है। छोटे राज्यों में सूचनाएँ तेज़ी से फैलती हैं और वहाँ की जनता की सरकार से अपेक्षायें भी अधिक होती हैं। ऐसे में असंतोष की एक चिंगारी बड़े संघर्ष को जन्म दे सकती है।

ऐसा ही कुछ उत्तराखण्ड में भी देखने को मिला। प्रदेश पहले ही मूल निवास और सख़्त भूक़ानून को लेकर चिंतित था । इससे पहले कि उक्त दोनों माँगों पर सरकार कुछ विचार करती, भ्रष्टाचार का एक बड़ा मुद्दा खड़ा हो गया और इसी के चलते सचिवालय में ऊर्जा सचिव के साथ बेरोज़गार संघ के अध्यक्ष की कहसुनी हो गई। जो भी हुआ उसे दोनों ही स्तर पर उचित नहीं ठहराया जा सकता और किसी जनसेवक अधिकारी के स्तर पर तो बिलकुल नहीं। स्थिति कोई गंभीर नहीं थी, भ्रष्टाचार का मामला होने के कारण किसी राजनीतिक कार्यकर्ता का विचलित होना स्वाभाविक रूप से अपेक्षित हो सकता है लेकिन किसी जनसेवक की हठधर्मी को उपयुक्त व्यवहार नहीं ठहराया जा सकता । परिस्थिति को कूटनीतिक व्यवहार से टाला भी जा सकता था । व्यवस्था सुधारने के स्थान पर दमनात्मक प्रतिक्रिया को अच्छी परंपरा नहीं कहा जा सकता । जनता के रोष का सामना किसी जनसेवक अधिकारी के लिये कोई विचित्र घटना नहीं होती ।

बेरोज़गार संघ की पुलिस भर्ती के लिए आयु सीमा बढ़ाने की माँग के लंबित रहते माहोल और ख़राब हो गया।आज के समय जब सत्ता में बैठी पार्टी भ्रष्टाचार के विरुद्ध शून्य सहनशक्ति की नीति अपनाने की बात करती हो वहाँ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के चलते किसी नौकरशाह को सेवा विस्तार देना किसी के भी गले नहीं उतरता। सेवा विस्तार तो दूर की बात है, सतर्कता आयोग के निर्देशों के अंदर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के चलते संबंधित नौकरशाह को तब तक संवेदनशील पद से दूर रखा जाना चाहिए जब तक कि संबंधित जनसेवक दोषमुक्त घोषित न हो जाये। सेवा विस्तार तो बहुत ही विशेष परिस्थितियों में जनसेवक की अति उत्तम छवि और सतर्कता क्लीयरेंस के बाद दिया जाना चाहिए। वर्तमान प्रकरण के तार सरकार में कहाँ तक जुड़े हैं, यह कहना तो जल्दबाज़ी होगा किंतु इससे सरकार की छवि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना निश्चित है। सरकार कितनी भी ईमानदार क्यों न हो किसी वरिष्ठ अधिकारी द्वारा किए गए भ्रष्टाचार से पल्ला नहीं झाड़ सकती। मुख्यमंत्री की चुप्पी जनता को संशय में डालने के लिए पर्याप्त है। आज हम जिस दौर से गुजर रहे हैं वहाँ जनता में फैला आक्रोश कुछ भी गुल खिला सकता है। छोटा प्रदेश है, आंदोलन की चिंगारी बड़ी तेज़ी से फैलती है और यहाँ की जनता शीघ्र उद्वेलित होकर प्रभावित होती है ऐसे में सरकार की छवि पर हल्का सा भी दबाव प्रदेश की फ़िज़ा को बदलने में कामयाब हो सकता है। देश और प्रदेश प्रथम है उसके सामने कोई भी नौकरशाह , नेता अधिक महत्वपूर्ण नहीं हो सकता । ऐसा भी कोई व्यक्ति नहीं हो सकता जिसके बिना प्रदेश का शासकीय कार्य अवरुद्ध हो जाये। इससे पहले कि यह असंतोष जनआंदोलन में परिवर्तित होकर नये मंच को जन्म दे दे , आदरणीय मुख्यमंत्री को भ्रष्टाचार पर कड़ा प्रहार करते हुए सरकार की भ्रष्टाचार विरोधी प्रतिबद्धता को जनता के सामने सिद्ध कर देना चाहिए।वरना अफ़वाहों का बवंडर सरकार और पार्टी के लिए कितना विनाशकारी हो सकता है, इसकी कल्पना सहज ही लगायी जा सकती है।

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गांधी- याद बहुत आते हैं । https://tirangaspeaks.com/%e0%a4%97%e0%a4%be%e0%a4%82%e0%a4%a7%e0%a5%80-%e0%a4%af%e0%a4%be%e0%a4%a6-%e0%a4%ac%e0%a4%b9%e0%a5%81%e0%a4%a4-%e0%a4%86%e0%a4%a4%e0%a5%87-%e0%a4%b9%e0%a5%88%e0%a4%82-%e0%a5%a4/?utm_source=rss&utm_medium=rss&utm_campaign=%25e0%25a4%2597%25e0%25a4%25be%25e0%25a4%2582%25e0%25a4%25a7%25e0%25a5%2580-%25e0%25a4%25af%25e0%25a4%25be%25e0%25a4%25a6-%25e0%25a4%25ac%25e0%25a4%25b9%25e0%25a5%2581%25e0%25a4%25a4-%25e0%25a4%2586%25e0%25a4%25a4%25e0%25a5%2587-%25e0%25a4%25b9%25e0%25a5%2588%25e0%25a4%2582-%25e0%25a5%25a4 Thu, 30 Jan 2025 16:27:52 +0000 https://tirangaspeaks.com/?p=87 आज तीस जनवरी है, परम आदरणीय राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पुण्य तिथि । राष्ट्रपिता गांधी जी को उनकी स्मृति में विनम्र श्रद्धांजलि । पिता कौन होता है? पिता वह होता है जो अपनी संतान की उत्पत्ति करता है, उसे जीवन का संघर्ष सिखाता है और जीवन पर्यंत अपनी संतानों को संस्कार देता रहता है। महात्मा [...]

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आज तीस जनवरी है, परम आदरणीय राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पुण्य तिथि । राष्ट्रपिता गांधी जी को उनकी स्मृति में विनम्र श्रद्धांजलि । पिता कौन होता है? पिता वह होता है जो अपनी संतान की उत्पत्ति करता है, उसे जीवन का संघर्ष सिखाता है और जीवन पर्यंत अपनी संतानों को संस्कार देता रहता है। महात्मा गांधी ने हमें जन्म तो नहीं दिया फिर भी एक पिता की तरह जीवन भर हमारा मार्गदर्शन करते रहे और बहुत से संस्कार दिए । इसलिए उन्हें राष्ट्र पिता का सम्मान दिया जाना स्वाभाविक है।

गांधी नाम की चर्चा भारत में तब शुरू होती है जब मोहन दास करम चंद गांधी विदेश से बैरिस्टर की पढ़ाई कर भारत लौटते हैं। और तब से मानो गांधी शब्द हिंदुस्तान की जीवन प्रक्रिया का अभिन्न अंग बन गया है। कोई भी राष्ट्रीय चर्चा बिना गांधी शब्द का उच्चारण किए अपने लक्ष्य को प्राप्त करती नज़र नहीं आती।कोई दिन नहीं जाता जब गांधी से हमारा वास्ता नहीं पड़ता । रोज़ हमें गांधी याद आते हैं । अनेक देशवासियों की तरह मैंने भी गांधी जी का दर्शन जानने की कोशिश की । बहुत नहीं लेकिन जो कुछ मेरे पल्ले पड़ा , जो संस्कार देश की जनता को मिले , उन्हें कुछ शब्द देकर आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ।

सब कुछ पाओ लेकिन त्याग का दिखावा करो – गांधी जी का जीवन जन्म से लेकर बैरिस्टर बनने तक निश्चित रूप से वैभव पूर्ण रहा होगा अन्यथा उस समय विदेश से बैरिस्टर की पढ़ाई कर लौटना इतना सुविधाजनक तो नहीं था । बैरिस्टर बनने के बाद वकालत में कोई ख़ास प्रसिद्धि पाने का ज़िक्र मैंने नहीं सुना लेकिन उनकी महत्वाकांक्षा कम नहीं हुई और अंग्रेजों का विरोध कर उन्हें देश का प्रतिनिधि समझने और अपना सम्मान करने हेतु बाध्य कर दिया , यह थी गांधी जी की कूटनीति । ब्रिटिश सरकार ने जो सम्मान गांधी जी को दिया अन्य किसी स्वतंत्रता सेनानी को नहीं दिया ।आख़िर क्यों? अंग्रेज़ी सरकार से पूरे समय उच्च स्तरीय सुविधा प्राप्त कर उनके विरुद्ध नाटक करते रहे। क्या कारण था कि अंग्रेजों ने उन्हें महात्मा की उपाधि से अलंकृत किया और विषम परिस्थितियों में भी उनके प्रस्ताव को अहमियत देते रहे। गांधी जी की मान्यता इतनी थी कि उनकी एक अपील / सिफ़ारिश पर भगत सिंह की फाँसी टल सकती थी यह बात अलग है कि किन कारणों से ऐसा संभव नहीं हुआ । में यह भी समझने में असमर्थ रहा हूँ की वो कौन सी अभिलाषा अथवा परिस्थिति थी जिसके अंतर्गत दुश्मन , आततायी और क्रूर ब्रिटिश सरकार से महात्मा की उपाधि गांधी जी ने स्वीकार की? हिंदुस्तानी तो दुश्मन के अन्न का एक दाना भी स्वीकार नहीं करता । पूरे जीवन सादगी और त्याग का दर्शन प्रस्तुत कर कांग्रेस पर आधिपत्य बनाये रखा। यह त्याग था अथवा राजनीतिक महत्वाकांक्षा ? सरदार पटेल को सर्वसम्मत मत मिलने के बाद भी जीरो वोट प्राप्त जवाहर लाल को प्रधान मंत्री बनाने के पीछे कौन सा बापू चरित्र काम कर रहा था ?यह प्रश्न तो शायद आज भी अनुत्तरित है। लेकिन इतना तो समझा जा सकता है कि कोई तो था जो कांग्रेस को मदारी की तरह नचा रहा था और वो थे हमारे स्वार्थ विहीन राजनीतिज्ञ और महात्मा गांधी जी।

लव जिहाद जिसके नाम से आज खून खराबा और सांप्रयदिक उन्माद भड़क उठता है, यदि फ़िरोज़ ख़ान को गांधी बनाकर उस समय के उस लव जिहाद के बीज को पनपने न दिया होता तो शायद उसके बाद लाखों हिंदू कन्याओं को जघन्य अपराधों से प्रभावित होने से बचाया जा सकता था । बस उसके बाद तो जैसे गांधी नाम का जलवा चल निकला । राष्ट्रपिता कहलाने वाले अपने ब्रह्मचर्य की परीक्षा ले रहे थे तो भावी प्रधान मंत्री की प्रेम कहानियों से राजनीति के मज़े का स्वाद चखा जा रहा था । नेहरू प्रधान मंत्री होते हुए भी अपनी सखी ब्रिटिश नारी से गोपनीय बातें साझा करते थे तो राजनीति के जॉइन से सदाचार और शपथ के अनुपालन का व्यवहार होता था ।उसके बाद आज तक गांधी ने हमारा पीछा नहीं छोड़ा । कभी इंदिरा गांधी, कभी संजय गांधी , कभी राजीव तो कभी सोनिया और अभी राहुल गांधी के रूप में विशेष कहानियाँ हमारे सामाजिक ज्ञान का पाठ्यक्रम बनी हुई है । इन सबकी इस्लाम परस्ती इनकी राजनीति में हावी न रही होती तो देश आज भी सांप्रयादिकता की आग में न जल रहा होता ।और यह सिलसिला यूँ ही आगे बढ़ते रहने की आशा है।

हमें जो सबसे बड़ा संस्कार हमारे राष्ट्र पिता ने दिया वो है अहिंसा । इस उपदेश ने तो मानों देश में कायरों की फोज ही खड़ी कर दी। ये कैसा पिता था जिसकी एक संतान को अहिंसा और दूसरी को हिंसा का संस्कार मिला। ये वो संस्कार था जिसने भारत की जीवन प्रक्रिया ही बदल दी और आज भी हिंसा और अहिंसा के बीच देश कराहता नज़र आता है।टीस उठती है और बार बार गांधी याद आते हैं वो गांधी जो इतिहास के पन्नों में दर्ज होकर देश की हाथों की लकीर बन गयें हैं।

आज तीस जनवरी है, परम आदरणीय राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पुण्य तिथि । राष्ट्रपिता गांधी जी को उनकी स्मृति में विनम्र श्रद्धांजलि । पिता कौन होता है? पिता वह होता है जो अपनी संतान की उत्पत्ति करता है, उसे जीवन का संघर्ष सिखाता है और जीवन पर्यंत अपनी संतानों को संस्कार देता रहता है। महात्मा गांधी ने हमें जन्म तो नहीं दिया फिर भी एक पिता की तरह जीवन भर हमारा मार्गदर्शन करते रहे और बहुत से संस्कार दिए । इसलिए उन्हें राष्ट्र पिता का सम्मान दिया जाना स्वाभाविक है।

गांधी नाम की चर्चा भारत में तब शुरू होती है जब मोहन दास करम चंद गांधी विदेश से बैरिस्टर की पढ़ाई कर भारत लौटते हैं। और तब से मानो गांधी शब्द हिंदुस्तान की जीवन प्रक्रिया का अभिन्न अंग बन गया है। कोई भी राष्ट्रीय चर्चा बिना गांधी शब्द का उच्चारण किए अपने लक्ष्य को प्राप्त करती नज़र नहीं आती।कोई दिन नहीं जाता जब गांधी से हमारा वास्ता नहीं पड़ता । रोज़ हमें गांधी याद आते हैं । अनेक देशवासियों की तरह मैंने भी गांधी जी का दर्शन जानने की कोशिश की । बहुत नहीं लेकिन जो कुछ मेरे पल्ले पड़ा , जो संस्कार देश की जनता को मिले , उन्हें कुछ शब्द देकर आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ।

सब कुछ पाओ लेकिन त्याग का दिखावा करो – गांधी जी का जीवन जन्म से लेकर बैरिस्टर बनने तक निश्चित रूप से वैभव पूर्ण रहा होगा अन्यथा उस समय विदेश से बैरिस्टर की पढ़ाई कर लौटना इतना सुविधाजनक तो नहीं था । बैरिस्टर बनने के बाद वकालत में कोई ख़ास प्रसिद्धि पाने का ज़िक्र मैंने नहीं सुना लेकिन उनकी महत्वाकांक्षा कम नहीं हुई और अंग्रेजों का विरोध कर उन्हें देश का प्रतिनिधि समझने और अपना सम्मान करने हेतु बाध्य कर दिया , यह थी गांधी जी की कूटनीति । ब्रिटिश सरकार ने जो सम्मान गांधी जी को दिया अन्य किसी स्वतंत्रता सेनानी को नहीं दिया ।आख़िर क्यों? अंग्रेज़ी सरकार से पूरे समय उच्च स्तरीय सुविधा प्राप्त कर उनके विरुद्ध नाटक करते रहे। क्या कारण था कि अंग्रेजों ने उन्हें महात्मा की उपाधि से अलंकृत किया और विषम परिस्थितियों में भी उनके प्रस्ताव को अहमियत देते रहे। गांधी जी की मान्यता इतनी थी कि उनकी एक अपील / सिफ़ारिश पर भगत सिंह की फाँसी टल सकती थी यह बात अलग है कि किन कारणों से ऐसा संभव नहीं हुआ । में यह भी समझने में असमर्थ रहा हूँ की वो कौन सी अभिलाषा अथवा परिस्थिति थी जिसके अंतर्गत दुश्मन , आततायी और क्रूर ब्रिटिश सरकार से महात्मा की उपाधि गांधी जी ने स्वीकार की? हिंदुस्तानी तो दुश्मन के अन्न का एक दाना भी स्वीकार नहीं करता । पूरे जीवन सादगी और त्याग का दर्शन प्रस्तुत कर कांग्रेस पर आधिपत्य बनाये रखा। यह त्याग था अथवा राजनीतिक महत्वाकांक्षा ? सरदार पटेल को सर्वसम्मत मत मिलने के बाद भी जीरो वोट प्राप्त जवाहर लाल को प्रधान मंत्री बनाने के पीछे कौन सा बापू चरित्र काम कर रहा था ?यह प्रश्न तो शायद आज भी अनुत्तरित है। लेकिन इतना तो समझा जा सकता है कि कोई तो था जो कांग्रेस को मदारी की तरह नचा रहा था और वो थे हमारे स्वार्थ विहीन राजनीतिज्ञ और महात्मा गांधी जी।

लव जिहाद जिसके नाम से आज खून खराबा और सांप्रयदिक उन्माद भड़क उठता है, यदि फ़िरोज़ ख़ान को गांधी बनाकर उस समय के उस लव जिहाद के बीज को पनपने न दिया होता तो शायद उसके बाद लाखों हिंदू कन्याओं को जघन्य अपराधों से प्रभावित होने से बचाया जा सकता था । बस उसके बाद तो जैसे गांधी नाम का जलवा चल निकला । राष्ट्रपिता कहलाने वाले अपने ब्रह्मचर्य की परीक्षा ले रहे थे तो भावी प्रधान मंत्री की प्रेम कहानियों से राजनीति के मज़े का स्वाद चखा जा रहा था । नेहरू प्रधान मंत्री होते हुए भी अपनी सखी ब्रिटिश नारी से गोपनीय बातें साझा करते थे तो राजनीति के जॉइन से सदाचार और शपथ के अनुपालन का व्यवहार होता था ।उसके बाद आज तक गांधी ने हमारा पीछा नहीं छोड़ा । कभी इंदिरा गांधी, कभी संजय गांधी , कभी राजीव तो कभी सोनिया और अभी राहुल गांधी के रूप में विशेष कहानियाँ हमारे सामाजिक ज्ञान का पाठ्यक्रम बनी हुई है । इन सबकी इस्लाम परस्ती इनकी राजनीति में हावी न रही होती तो देश आज भी सांप्रयादिकता की आग में न जल रहा होता ।और यह सिलसिला यूँ ही आगे बढ़ते रहने की आशा है।

हमें जो सबसे बड़ा संस्कार हमारे राष्ट्र पिता ने दिया वो है अहिंसा । इस उपदेश ने तो मानों देश में कायरों की फोज ही खड़ी कर दी। ये कैसा पिता था जिसकी एक संतान को अहिंसा और दूसरी को हिंसा का संस्कार मिला। ये वो संस्कार था जिसने भारत की जीवन प्रक्रिया ही बदल दी और आज भी हिंसा और अहिंसा के बीच देश कराहता नज़र आता है।टीस उठती है और बार बार गांधी याद आते हैं वो गांधी जो इतिहास के पन्नों में दर्ज होकर देश की हाथों की लकीर बन गयें हैं।

आज तीस जनवरी है, परम आदरणीय राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पुण्य तिथि । राष्ट्रपिता गांधी जी को उनकी स्मृति में विनम्र श्रद्धांजलि । पिता कौन होता है? पिता वह होता है जो अपनी संतान की उत्पत्ति करता है, उसे जीवन का संघर्ष सिखाता है और जीवन पर्यंत अपनी संतानों को संस्कार देता रहता है। महात्मा गांधी ने हमें जन्म तो नहीं दिया फिर भी एक पिता की तरह जीवन भर हमारा मार्गदर्शन करते रहे और बहुत से संस्कार दिए । इसलिए उन्हें राष्ट्र पिता का सम्मान दिया जाना स्वाभाविक है।

गांधी नाम की चर्चा भारत में तब शुरू होती है जब मोहन दास करम चंद गांधी विदेश से बैरिस्टर की पढ़ाई कर भारत लौटते हैं। और तब से मानो गांधी शब्द हिंदुस्तान की जीवन प्रक्रिया का अभिन्न अंग बन गया है। कोई भी राष्ट्रीय चर्चा बिना गांधी शब्द का उच्चारण किए अपने लक्ष्य को प्राप्त करती नज़र नहीं आती।कोई दिन नहीं जाता जब गांधी से हमारा वास्ता नहीं पड़ता । रोज़ हमें गांधी याद आते हैं । अनेक देशवासियों की तरह मैंने भी गांधी जी का दर्शन जानने की कोशिश की । बहुत नहीं लेकिन जो कुछ मेरे पल्ले पड़ा , जो संस्कार देश की जनता को मिले , उन्हें कुछ शब्द देकर आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ।

सब कुछ पाओ लेकिन त्याग का दिखावा करो – गांधी जी का जीवन जन्म से लेकर बैरिस्टर बनने तक निश्चित रूप से वैभव पूर्ण रहा होगा अन्यथा उस समय विदेश से बैरिस्टर की पढ़ाई कर लौटना इतना सुविधाजनक तो नहीं था । बैरिस्टर बनने के बाद वकालत में कोई ख़ास प्रसिद्धि पाने का ज़िक्र मैंने नहीं सुना लेकिन उनकी महत्वाकांक्षा कम नहीं हुई और अंग्रेजों का विरोध कर उन्हें देश का प्रतिनिधि समझने और अपना सम्मान करने हेतु बाध्य कर दिया , यह थी गांधी जी की कूटनीति । ब्रिटिश सरकार ने जो सम्मान गांधी जी को दिया अन्य किसी स्वतंत्रता सेनानी को नहीं दिया ।आख़िर क्यों? अंग्रेज़ी सरकार से पूरे समय उच्च स्तरीय सुविधा प्राप्त कर उनके विरुद्ध नाटक करते रहे। क्या कारण था कि अंग्रेजों ने उन्हें महात्मा की उपाधि से अलंकृत किया और विषम परिस्थितियों में भी उनके प्रस्ताव को अहमियत देते रहे। गांधी जी की मान्यता इतनी थी कि उनकी एक अपील / सिफ़ारिश पर भगत सिंह की फाँसी टल सकती थी यह बात अलग है कि किन कारणों से ऐसा संभव नहीं हुआ । में यह भी समझने में असमर्थ रहा हूँ की वो कौन सी अभिलाषा अथवा परिस्थिति थी जिसके अंतर्गत दुश्मन , आततायी और क्रूर ब्रिटिश सरकार से महात्मा की उपाधि गांधी जी ने स्वीकार की? हिंदुस्तानी तो दुश्मन के अन्न का एक दाना भी स्वीकार नहीं करता । पूरे जीवन सादगी और त्याग का दर्शन प्रस्तुत कर कांग्रेस पर आधिपत्य बनाये रखा। यह त्याग था अथवा राजनीतिक महत्वाकांक्षा ? सरदार पटेल को सर्वसम्मत मत मिलने के बाद भी जीरो वोट प्राप्त जवाहर लाल को प्रधान मंत्री बनाने के पीछे कौन सा बापू चरित्र काम कर रहा था ?यह प्रश्न तो शायद आज भी अनुत्तरित है। लेकिन इतना तो समझा जा सकता है कि कोई तो था जो कांग्रेस को मदारी की तरह नचा रहा था और वो थे हमारे स्वार्थ विहीन राजनीतिज्ञ और महात्मा गांधी जी।

लव जिहाद जिसके नाम से आज खून खराबा और सांप्रयदिक उन्माद भड़क उठता है, यदि फ़िरोज़ ख़ान को गांधी बनाकर उस समय के उस लव जिहाद के बीज को पनपने न दिया होता तो शायद उसके बाद लाखों हिंदू कन्याओं को जघन्य अपराधों से प्रभावित होने से बचाया जा सकता था । बस उसके बाद तो जैसे गांधी नाम का जलवा चल निकला । राष्ट्रपिता कहलाने वाले अपने ब्रह्मचर्य की परीक्षा ले रहे थे तो भावी प्रधान मंत्री की प्रेम कहानियों से राजनीति के मज़े का स्वाद चखा जा रहा था । नेहरू प्रधान मंत्री होते हुए भी अपनी सखी ब्रिटिश नारी से गोपनीय बातें साझा करते थे तो राजनीति के जॉइन से सदाचार और शपथ के अनुपालन का व्यवहार होता था ।उसके बाद आज तक गांधी ने हमारा पीछा नहीं छोड़ा । कभी इंदिरा गांधी, कभी संजय गांधी , कभी राजीव तो कभी सोनिया और अभी राहुल गांधी के रूप में विशेष कहानियाँ हमारे सामाजिक ज्ञान का पाठ्यक्रम बनी हुई है । इन सबकी इस्लाम परस्ती इनकी राजनीति में हावी न रही होती तो देश आज भी सांप्रयादिकता की आग में न जल रहा होता ।और यह सिलसिला यूँ ही आगे बढ़ते रहने की आशा है।

हमें जो सबसे बड़ा संस्कार हमारे राष्ट्र पिता ने दिया वो है अहिंसा । इस उपदेश ने तो मानों देश में कायरों की फोज ही खड़ी कर दी। ये कैसा पिता था जिसकी एक संतान को अहिंसा और दूसरी को हिंसा का संस्कार मिला। ये वो संस्कार था जिसने भारत की जीवन प्रक्रिया ही बदल दी और आज भी हिंसा और अहिंसा के बीच देश कराहता नज़र आता है।टीस उठती है और बार बार गांधी याद आते हैं वो गांधी जो इतिहास के पन्नों में दर्ज होकर देश की हाथों की लकीर बन गयें हैं।

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