Policy Archives - Tiranga Speaks https://tirangaspeaks.com/category/policy/ Voice of Nation Mon, 10 Feb 2025 08:07:06 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.1 उत्तराखण्ड में मूल निवास और भू क़ानून – समाधान  https://tirangaspeaks.com/uttarakhand-resident-policy/?utm_source=rss&utm_medium=rss&utm_campaign=uttarakhand-resident-policy https://tirangaspeaks.com/uttarakhand-resident-policy/#respond Mon, 10 Feb 2025 08:07:06 +0000 https://tirangaspeaks.com/?p=164 कई महीनों से उत्तराखंड में मूल निवास और भू क़ानून की चर्चा ज़ोरों पर है। काफ़ी पूछताछ और चर्चा के बाद भी इसके ओचित्य को समझने में मुश्किल हो रही है। हम आज़ादी से पहले भी भारतवासी थे यानी भारत के ही मूल निवासी और आज भी हमारी पहचान वही है। सांस्कृतिक रीतिरिवाजों से अवश्य [...]

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कई महीनों से उत्तराखंड में मूल निवास और भू क़ानून की चर्चा ज़ोरों पर है। काफ़ी पूछताछ और चर्चा के बाद भी इसके ओचित्य को समझने में मुश्किल हो रही है। हम आज़ादी से पहले भी भारतवासी थे यानी भारत के ही मूल निवासी और आज भी हमारी पहचान वही है। सांस्कृतिक रीतिरिवाजों से अवश्य हमें क्षेत्र के नाम पर पुकारा जाता था जिससे हमारी भाषा, रहनसहन, संस्कृति और वेशभूषा का आभास होता था जो आज भी प्रचलित है लेकिन में नहीं समझता कि हमारी इस दूसरी पहचान का हमारे किसी अधिकार से कोई सरोकार था। पूर्व में हमारी प्रथाएँ ही हमारा क़ानून होती थी इसलिए क्षेत्र के हिसाब से कुछ क़ानून बदलते जाते थे ।लेकिन इस दूसरी पहचान को बनाये रखने का अर्थ है अपनी पुरानी सांस्कृतिक धरोहरों को बचाये रखना।
यदि इसी उद्देश्य को लेकर किसी माँग पर चर्चा की जाय तो यह कहीं से भी असंगत नहीं लगता किंतु हमारी मूल पहचान भारतीय है जिसे विभिन्न टुकड़ों में बाँटा जाना भी न्यायोचित नहीं है। किसी भी वर्ग अथवा क्षेत्र द्वारा अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाये रखना उनके अपने पूर्वजों के प्रति विश्वास और सम्मान को दर्शाता है लेकिन क्या कोई व्यक्ति प्राकृतिक विकास जिसे एवोल्यूशन भी कहा जाता है, की गति को रोक सकता है शायद नहीं , हाँ कुछ पर्यासों से गति बढ़ /घट अवश्य सकती है। जैसे मानव द्वारा निरंतर अनुषंधान करने, नई परिष्ठितियों से निपटने के लिए परिवर्तित होने जैसी क्रियायें हो सकती है।प्रकर्ती में परिवर्तन अपरिहार्य है जो स्वतः स्फूर्तिक है, जिसे रोका नहीं जा सकता।
स्पष्ट है कि धीरे धीरे स्वयमेव परिवर्तन आ रहा है कुछ मानव जनित तो कुछ प्राकर्तिक रूप से। अपने उत्तराखण्ड को ही ले लीजिए अधिक नहीं सिर्फ़ आज़ादी के ७५ वर्षों के पन्ने पलट कर देखिए कितना कठिन रहा होगा पहाड़ का जीवन? सुविधा के नाम पर आसमान सी खामोशी । शिक्षा के नाम पर कोई उच्च संस्थान नहीं। स्वास्थ्य के नाम पर व्यक्ति बीमार हो जाये तो उपरवाले प्रभु और स्थानीय देवी देवताओं के भरोसे ज़िंदगी ।सिर पर छत के लाले और जीने के लिए जंगल में कड़ी मेहनत, खाद्यान्न की कमी लेकिन धीरे धीरे मेहनत और विश्वास के सहारे बहुत कुछ बदल गया । पहाड़ से युवकों ने बाहर जाकर अवसर ढूँढना शुरू किए तो ख़ुशहाली का दामन हाथ लगा । आज अनगिनत उदाहरण हैं जो पहाड़ की उन्नति और विकास की कहानी बताने के लिए काफ़ी हैं।
मूल निवास का प्रश्न उठना तो निश्चित रूप से ओचितिय हीन है। मूल निवास किसी नागरिक का बदला नहीं जा सकता। यह उसके जन्म से जुड़ा मुद्दा है। भारत में जो जहां का मूल निवासी था वहीं का मूल निवासी है। किसी का मूल निवास बदला ही नहीं गया तो उसे लागू करने का प्रश्न ही कहाँ उठता है। कौन कहता है कि जन्म से इस पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले यहाँ के मूल निवासी नहीं हैं जिसने यहाँ जन्म लिया , शिक्षा और रोज़गार लिया , यहीं पर निवास किया उसे कहाँ का मूल निवासी कहा जाएगा । इसके साथ ही यहाँ संपत्ति लेकर निश्चित समय से निवास कर रहे नागरिक को यहाँ का स्थायी निवासी नहीं तो क्या कहा जाएगा ? विदेश में बसने पर तो नागरिकता तक चली जाती है फिर भी वह भारत का मूल निवासी ही कहलाता है। और उससे फ़र्क़ भी क्या पड़ता है? जो जहां रहेगा , वहाँ का नागरिक कहलाएगा और सरकार तदनुसार उसकी व्यवस्था करेगी । आजतक किसी ने सभी प्रकार की आत्मनिर्भरता हासिल नहीं की । अमेरिका , रुस और चीन ने भी नहीं। इसलिए किसी प्रकार की अलगाववादी सोच का कोई महत्व नहीं हो सकता । देहरादून में पढ़े दूसरे राज्य के विद्यार्थियों को उत्तराखंड में मान्यता नहीं मिलेगी तो जॉइन आएगा? उत्तराखंडी भाई बहनों को दूसरे राज्यों में रोज़गार नहीं मिलेगा तो कोई भारत की बात करेगा?
हाँ एक बार अवश्य सच है कि किसी भी क्षेत्र की संपदाओं, अवसरों पर पहला अधिकार वहाँ के स्थानीय निवासियों का होता है। योग्यता अनुसार उन्हें उनका अधिकार मिलना चाहिए। लेकिन इसका तत्पर्य यह बिलकुल नहीं कि दूर दराज के योग्य व्यक्तियों को अवसरों से दूर रखा ज़ाय। कम या अधिक हो सकता है लेकिन उचित सामंजस्य तो रखना ही पड़ेगा।यह संभव ही नहीं है। जरा मश्तिष्क पर ज़ोर डालकर देखिए यदि सभी राज्य ऐसा सोच लें तो लगभग सभी राज्य के पास योग्यता अथवा अवसरों की कमी हो जाएगी। अमेरिका जैसे संपन्न देश को भी विदेशियों को अवसर देने पड़ते हैं। सरकार को चाहिए कि अधिकतम अवसर स्थानीय को मिले लेकिन योग्यता के आधार पर । देश में मिले सांविधानिक अधिकार के अनुसार देश में कहीं भी रहने, रोज़गार करने को चुनौती नहीं दी जा सकती। जरा सोचिए यदि देश के सभी राज्यों में धारा ३७०, ३५a लागू कर दी जाएँ तो क्या होगा ? देश अगले दिन छोटे छोटे देशों में बँटकर कमजोर हो जाएगा।
 अब बात भू क़ानून की करते हैं । यह राज्य का विषय है जिसके अंतर्गत सभी राज्य सरकारें अपनी भूमि का प्रबंधन भू क़ानून के लिये करती हैं।राज्य को खेती, बाग़बानी , उत्पादन , निवास, सड़कें, नहरों इत्यादि के लिए भूमि उपयोग की व्यवस्था करनी होती है। ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहां भूमि की ख़रीद बिक्री न होती हो। कुछ स्थान अलग अलग दृष्टिकोण से अधिक महत्वपूर्ण हो जाते हैं जहां बसने और कारोबार करने के इच्छुक नागरिकों विशेष तौर पर व्यापारियों की संख्या अधिक रहती है।उत्तराखण्ड नया राज्य बना तो सरकार को यहाँ के विकास की चिंता हुई। बहुत सी योजनाएँ बनी जिसके कारण उत्तराखण्ड भूमि क्रय का आकर्षण केंद्र बन गया। भू क़ानून भी बना जिससे भूमि का उचित प्रबंधन किया जा सके। किसी भी स्थान पर जब विकास होता है, भूमि की क़ीमतें बढ़ने लगती हैं इसलिए ख़रीद बिक्री भी अधिक होती है। हर कोई लाभ कमाने की इच्छा रखने लगता है। ऐसा ही उत्तराखंड में घटित हुआ। भूमि आवास और वाणिजियक गतिविधियों के लिए ख़रीदी जाने लगी। जब लाभ की स्थिति होती है तो विशेष रूप से कम भूमि के स्वामी अपनी भूमि की बिक्री कर नये अवसरों की तलाश में पलायन करने लगते हैं।जब प्रदेश में क्रषिभूमि का खेत्रफल घटने लगा तो यहाँ की जनता की आँखें खुली और पुनः भू क़ानून के पुनरीक्षण की माँग बढ़ने लगी।
माँग तो उचित है लेकिन भू क़ानून जिस रूप में माँगा जा रहा है वह थोड़ा अटपटा ज़रूर लगता है। किसी भी विक्रेता को किसी विशेष वर्ग के व्यक्ति को बेचने के लिए बाध्य करना तर्कसंगत नहीं लगता ।न ही इससे भूमि को विक्रय से रोका जा सकता है।बल्कि इससे चंद स्थानीय भू माफियाओं की चाँदी हो जाने की संभावना बढ़ जाती है। जहां तक दूसरे प्रदेशों के नागरिकों द्वारा भूमि ख़रीदने का प्रश्न है तो उन्होंने अधिक दाम देकर भूमि ख़रीद की है और भूमि उत्तराखण्ड में ही रही है। इसके साथ ही उत्तराखंड निवासियों ने भी दूसरे राज्यों में भूमि ख़रीद की है जिसपर कोई प्रतिबंध नहीं है।सरकार को चाहिए कि भूमि की अंधा धुँध बिक्री को नियंत्रित करने के लिए कुछ प्रतिबंध लगाये, भूमि के प्रयोग को नोटिफाई करे।
उत्तराखण्ड में भी क़ानून पहले से ही एक भावनात्मक मुद्दा रहा है। सरकार के सामने एक और जन भावनाएँ हैं तो दूसरी और विकास से जुड़ी समस्या और बू क़ानून का दूसरे राज्यों में रह रहे उत्तराखंडियों पर पड़ने वाला प्रभाव भी महत्वपूर्ण है। पूर्ववर्ती सरकारों ने अपने समय की स्थिति को देखते हुए जो उचित समझा , क़ानून में संशोधन कर लागू कर दिया। इसे शायद दूरगामी सोच में कमी कही जाएगी कि बहुत सी समस्या होने पर जनता की और से सख़्त भू क़ानून लाने की माँग बढ़ रही है। सरकार को दोनों पक्ष ही देखने होंगे और यह भी सुनिश्चित करना होगा कि प्रदेश की भूमि का अनुचित दोहन न हो और यहाँ की संस्कृति भी सुरक्षित रखी जा सके। इसके लिए कुछ मुख्य सुझाव हैं किनपर सरकार चाहे तो अभी भी विचार कर सकती है:
 १ उत्तराखण्ड के किसी भी मूल निवासी को जो अपनी भूमि किसी कारण विक्रय करना चाहता है, कारण बताते हुए उप ज़िला मजिस्ट्रेट से लिखित अनुमति लेनी होगी।
 २ उप ज़िला मजिस्ट्रेट उल्लिखित कारणों पर विचार करेंगे और यदि सरकार की किसी योजना का लाभ देकर संबंधित व्यक्ति को उस स्थिति से निकाला जा सकता है तो ऐसा सुनिश्चित करेंगे अन्यथा लिखित स्पष्टीकरण के साथ बिक्री की अनुमति प्रदान करेंगे।
३ प्रदेश से बाहर निवास करने वाले नागरिक शहरी क्षेत्र में अधिकतम अपने परिवार के निवास हेतु ५०० स्क्वायर मीटर भूमि ख़रीद सकेंगे किंतु ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि भूमि केवल सरकार की अनुमति के बाद ख़रीद सकेंगे शर्त यह होगी कि उन्हें भूमि को प्रत्येक वर्ष कृषि उपयोग किए जाने का प्रमाण देना होगा जिसकी अनुपस्थिति और असंतोषजनक स्पष्टीकरण पाये जाने पर भूमि का स्वामित्व सर्किल रेट पर राज्य सरकार में निहित कर लिया जाएगा।यह शर्त प्रत्येक उत्तराखण्ड निवासी क्रेता पर भी लागू होगी।
४ बिना कैबिनेट बैठक की अनुमति कृषि भूमि का उपयोग नहीं बदला जा सकेगा ।
 ५ शहरी क्षेत्र में ख़रीदे गये अथवा अन्य प्रकार से प्राप्त निवासिय प्लॉट पर भी स्वामी को अधिकतम तीन वर्ष के भीतर नक़्शा स्वीकृत कराकर निर्माण सुनिश्चित करना होगा। भूमि की पंजीकृत क़ीमत का ५% प्रतिवर्ष के हिसाब से अधिभार की अदायगी पर अधिकतम दो वर्ष का विस्तार लिया जा सकेगा । पाँच वर्ष तक भी निर्माण पूरा न होने पर कम से कम १५% प्रति वर्ष का अधिभार वसूला जाएगा।
६ नगर निगम की सीमा के अंदर और सीमा से बाहर ८ किमी तक कोई भी निर्माण, प्लोटिंग विकास प्राधिकरण की अनुमति और नक़्शा स्वीकृत कराने के पश्चात ही की जाएगी।
७ निगम/नगर पालिका / नगर क्षेत्र में ख़ाली पड़े प्लॉट के स्वामी को उसका सफ़ाई शुल्क नियत दर से प्रति वर्ष संबंधित निकाय को भुगतान करना होगा।और उसकी संतोषजनक जल निकासी का प्रबंध करना होगा।
 ८ भूमि के क्रय विक्रय करने वाले व्यावसायिक व्यक्तियों को तेरा से पंजीकरण आवश्यक होगा तथा इसका उल्लेख व कमीशन का पंजीकरण पत्र में करना आवश्यक होगा ।
९ आवास के बाहर सड़क की भूमि पर पौधा/वृक्षारोपण केवल स्थानीय निकाय अथवा विकास प्राधिकरण द्वारा ही किया जा सकेगा। किसी भी सूरत में कोई व्यक्तिगत बाड/ ग्रिल आनंद की अनुमति नहीं होगी । जहां पूर्व में ऐसा किया गया है वहाँ क़ानून लागू होने की तिथि से एक महीने के अंदर भी स्वामी को अपने खर्च पर अतिक्रमण हटाना होगा । प्रतिबंधित वृक्षों की स्थिति में वन विभाग उनके प्रतिस्थापन की कार्यवाही सुनिश्चित करेगा ।
१० भविष्य में अतिक्रमण पाये जाने पर संबंधित क्षेत्र के थानाप्रभारी, विकास प्राधिकरण के अभियंता और नगर निगम के कर निरीक्षक को उत्तरदायी ठहराया जाएगा।
११ बड़े उद्योग केवल सरकार द्वारा अधिसूचित क्षेत्र में ही लगाये जा सकेंगे। इसके लिए सरकार अपनी नीतियों के अनुसार भूमि प्रबंधन करेगी।
 हमारा विचार है कि उपरोक्त प्रस्तावों को भी क़ानून में शामिल कर लंबे समय तक बहुत सी समस्याओं से छुटकारा पाया जा सकेगा।

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यू सी सी – कहीं पे तीर कहीं पे निशाना , नहीं चलेगा कोई बहाना ।  https://tirangaspeaks.com/ucc-the-direction/?utm_source=rss&utm_medium=rss&utm_campaign=ucc-the-direction https://tirangaspeaks.com/ucc-the-direction/#respond Mon, 10 Feb 2025 08:02:30 +0000 https://tirangaspeaks.com/?p=161 भारतीय जनता पार्टी ने अपने पहले ही घोषणा पत्र में संविधान की अपेक्षा के अनुरूप यू सी सी लागू करने की घोषणा की थी। समय बीतता चला गया और बहुत देर से उत्तराखंड में इस संबंध में पहला कदम रखा गया। बहुत से विद्वानों के विचार, नुक्कड़ चर्चाओं के बाद इस संबंध में कमेटी की [...]

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भारतीय जनता पार्टी ने अपने पहले ही घोषणा पत्र में संविधान की अपेक्षा के अनुरूप यू सी सी लागू करने की घोषणा की थी। समय बीतता चला गया और बहुत देर से उत्तराखंड में इस संबंध में पहला कदम रखा गया। बहुत से विद्वानों के विचार, नुक्कड़ चर्चाओं के बाद इस संबंध में कमेटी की घोषणा सरकार द्वारा की गई जिसके बाद निरंतर व घटकों से चर्चा, जनता से राय शुमारी चलती रही और अंततः यू सी सी कमेटी की रिपोर्ट सरकार को साउंड दी गई और अति उत्साह पूर्वक इस रिपोर्ट को सरकार ने स्वीकृत कर क़ानून का रूप दे दिया । जिस तरह से जोशोर के साथ क़ानून का आग़ाज़ हुआ, उसने निहित विषय सामग्री को देख समझ प्रदेश में चर्चाओं का फोर चल निकला । निकलना स्वाभाविक था क्योंकि कई कहावत एक साथ चरितार्थ हो गई। पहली कहावत – खोदा पहाड़ निकली चुहिया । जिस बड़े क्रांतिकारी परिवर्तन की उम्मीद की जा रही थी , ऐसा कुछ विशेष नहीं हुआ। जितनी पड़ी जान प्रतिक्रिया की अपेक्षा थी , कहीं सुरसुराहट भी नज़र नहीं आयी माँओं तूफ़ान से पहली भी शांति थी और बाद में भी।दूसरी कहावत – कहीं पे तीर कहीं पे निशाना। संविधान की आत्मा और भारतीय बहुसंख्यक समाज की भावनाओं के अनुरूप क़ानून का जो प्रारूप सामने आया उससे निराशा और सरकार की मंशा पर शक स्वाभाविक रूप से सामने आ गया। पहली बात यू सी सी का अर्थ और अभिप्राय ही ऐसे क़ानून से है जो पूरे देश और समस्त नागरिकों पर एक समान लागू हो। कुछ नागरिकों को बाहर रखते हुए एक देश और एक क़ानून की धारणा ध्वस्त हो गई ।
ऐसी कई तकनीकी समस्या भी उत्पन्न हो गई जिससे कई परिस्थितियों में इसका पालन संभवतः न हो पाये। एक और किसी वर्ग की संस्कृति और प्रम्पराओं की धज्जियाँ उड़ी तो इसी नाम पर कुछ को क़ानून के दायरे से ही बाहर रखा गया । जिस समस्या से निजात पाने की आवश्यकता थी उसकी जंगल की आग की तरह नियंत्रण से बाहर हो जाने की स्थिति बनती दिखाई दे रही है। जिस विषय का यू सी सी के माध्यम से समाधान होना चाहिए था उल्टे उसे और गंभीर बना दिया गया । देखा जाय तो यू सी सी में हिंदू समाज के लिए कोई विशेष परिवर्तन की उम्मीद नहीं थी । ऐसा लग रहा था कि यू सी सी का उद्देश्य दूसरे वर्ग विशेषकर मुस्लिम वर्ग को भारत में एक समान क़ानून से मुख्य धारा से जोड़ने का था और वो प्रयास हुआ भी किंतु शायद तीर की गति और प्रभावी क्षेत्र इतना व्यापक हो गया कि जिस प्रदेश में यू सी सी ने जन्म लिया वहीं की संस्कृति को तार तार कर दिया । सारी मेहनत मानों विफलता में बदल गई। बेरोज़गारी की जनप्रतिक्रिय से अभी दामन छोटा भी न था कि एक दूसरी चिंगारी अनावश्यक ही सुलग उठी। लव जिहाद की जिस समस्या से पूरा प्रदेश सुलग रहा था यू सी सी ने मनों उसकी अनुज्ञप्ति ही जारी कर दी। शायद जनता के किसी भी वर्ग ने यह राय संबंधित कमेटी को न दी होगी कि लिव एंड रिलेशन को क़ानूनी मान्यता दे दी जाय। एक पक्ष द्वारा प्रतिक्रिया पर विचार हुआ होगा लेकिन लिव एंड रिलेशन विषय पर विचार करते हुए इसकी गंभीरता और दूरगामी प्रभाव को डर किनार कर दिया गया । अब जॉइन से क़ानून से लव जिहाद को रोका जाएगा ?
जिस संस्कृति का रोना रोकर जनता में रोष व्याप्त हो रहा था , बेटियाँ सूट केस में बंद हो रही थी , माँ बाप की नींद उड़ी रहती थी , यू सी सी में लिव एंड रिलेशन के प्रावधान को देखकर चाहती पीटने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा । उत्तराखण्ड विशेषकर देहरादून शिक्षा का मुख्य केंद्र होने के कारण यहाँ पूरे देश से युवक का आगमन होता है। यही वह उम्र होती है जब हमारे बच्चे स्वतंत्रता के एहसास को आरंभ करते हैं, क्या सीखकर जाएँगे यहाँ से ? संपन्न परिवारों की लड़कियों को संपत्ति के लालच में और अधिक लव जिहाद का सामना करना पड़ेगा। ग़रीब वर्ग की लड़कियाँ बाहर से आने वाले संपन्न परिवारों के लड़कों की तरफ़ धड़ल्ले से आकर्षित होंगी। कोई सामाजिक डर, दबाव काम नहीं करेगा। शासन लव बर्ड्स को सुरक्षा देने के लिए विवश होगा कोई आश्चर्य नहीं कि इससे देह व्यापार में भी वृद्धि हो जाय। कुँवारी माताओं की संख्या न चाहते हुए भी इस क़ानून का दंश झेलेगी। इस नियम के पक्ष में अभी तक कोई सामाजिक विद्वान/शास्त्री सामने नहीं आया ही जिसने सरकार के इस निर्णय पर सकारात्मक टिप्पणी की हो। एक चिंगारी को दावानल में बदलते देर नहीं लगती वैसे भी सरकार के साथ बहुत दी समस्यायें लगी रहती हैं। उत्तराखण्ड की जनता वैसे भी किसी न किसी समस्या से त्रस्त होकर आंदोलित रहती है ऐसी परिस्थिति में यदि कोई लव जिहाद जैसी घटना हो गई तो स्थिति नियंत्रण से बाहर होते देर नहीं लगेगी। विषय जनभावनाओं से जुड़ा होने के कारण अत्यंत संवेदनशील है। सरकार को समय रहते इस पर विचार कर यू सी सी में लिव एंड रिलेशन में किए प्राविधानों को निरस्त कर देना चाहिए जो इस देव भूमि की संस्कृति और संस्कारों को कभी स्वीकार्य नहीं हो सकता।

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सावधान! अतिक्रमण से हम देश में अराजकता की ओर बढ़ रहे हैं। https://tirangaspeaks.com/attention-encroachment/?utm_source=rss&utm_medium=rss&utm_campaign=attention-encroachment https://tirangaspeaks.com/attention-encroachment/#respond Fri, 07 Feb 2025 17:41:14 +0000 https://tirangaspeaks.com/?p=158 आजकल देश में जहां देखो वहां कुछ लोग नित नए नए आंदोलन के लिये तैयार रहते हैं। कोई आरक्षण मांगने के लिये तो कोई हटाने के लिये। कोई नोकरी मांग रहा है कोई नोकरी जाने पर बवाल किये हुए है और जिन्हें नोकरी मिली है वो अपने वेतन भत्तों को बढ़ाने के लिये आसान लगाए [...]

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आजकल देश में जहां देखो वहां कुछ लोग नित नए नए आंदोलन के लिये तैयार रहते हैं। कोई आरक्षण मांगने के लिये तो कोई हटाने के लिये। कोई नोकरी मांग रहा है कोई नोकरी जाने पर बवाल किये हुए है और जिन्हें नोकरी मिली है वो अपने वेतन भत्तों को बढ़ाने के लिये आसान लगाए बैठे हैं। अपनी मांगे मनवाने के लिये सार्वजनिक संम्पत्ति को नुकसान, सभ्य नागरिकों का जीना दूभर करना और देश में निर्माण की गति को ठप्प कर देना तो शायद इन लोगो का हथियार बन गया है। हमने भू माफिया का नाम सुना था और एक दबंग रसूखदार की कल्पना की थी जो येन केन प्रकरेण लोगों की भूमि पर कब्जा कर लेता है लेकिन अब पता चल रहा है कि इस कार्य के लिये आपको माफिया बनने की भी आवश्यकता नही है। बस थोड़ा सा चालाकी से काम करने की आवश्यकता है और थोड़ी सी अधिकारियों अथवा जनप्रतिनिधियों की सेवा। बस जहां जुगाड़ भिड़ जाए एक बार अड्डा जमा लीजिए। धीरे धीरे अपने रिश्तेदार और मिलनेवालों को बुलाते रहिये बस बस गया आपका गांव/शहर। अब कभी किसी ने आपके इस अवैध अतिक्रमण के विरुद्ध आवाज उठाने की कोशिश भी की तो तुरंत छाती पीटना शुरू कर दीजिए। देशभर के क्या विफेशों से भी आपके मुफ्त के हमदर्दीये आपके साथ विलाप करने लगेंगे। किराए के रुदालियों का इतना जोर शोर से संगठित विलाप होगा कि सरकार की चूलें हिल जाएंगी।अदालतें मोम्म की तरह पिघलने लगेंगी। मानवता दर्द से कराह उठेगी। जनता असमंजस में आंखे फाड़कर प्रश्नसूचक निगाहों से एक दूसरे को देखने लगेगी। धरती फट जाएगी अम्बर बरसने लगेगा किंतु आप तक आंच नही आ पाएगी। वाह ऐसा शरीफ़ाना खेल भला कहीं और देखने को मिलेगा? सरकारें सोती रही और इस अराजकता के खेल ने देश का कोई शहर कोई रास्ता नहीं छोड़ा जहां अवैध अतिक्रमण ने अपने पैर न फैला लिए हों। अब अगर सरकार जागने का प्रयास भी करे तो कानून व्यवस्था का ऐसा प्रश्न खड़ा कर दिया जाएगा कि सरकार के हाथ पांव फूल जायेगें। किस किस के आंदोलन को सुलझाए।

क्या इस स्थिति का अंतिम पड़ाव अराजकता है? जी हां यदि देश के कानूनों की यही लचर स्थिति रही। इस देश का सभ्य नागरिक भी यह सब देखकर आंखे मूँदता और मुहं बंद रखता रहा तो निश्चित रूप से देश में अराजकता फैल जाएगी।जिसकी लाठी जहां चलेगी वहीं उसका कब्जा हो जाएगा। ऐसी स्थिति बहुत दूर दिखाई नही देती इसलिये बचना है तो जनता को ही आंखें खोलनी होगी। हाथ उठाकर अपनी आवाज़ कानून के समर्थन में उठानी पड़ेगी। रोटी कपड़ा मकान सबका हक है लेकिन यह हक किसी से छीनकर नही लिया जा सकता। यदि कोई आवास हींन है, अक्षम है उसका अधिकार है कि सरकार से अपने पुनर्वास की मांग करे। सरकार और जनता का कर्तव्य है कि उसे उसका अधिकार मिले लेकिन किसी भी स्थिति में कानून से खिलवाड़, देश के संसाधनों की लूट किसी भी प्रकार से क्षमा योग्य नही हो सकती। मानवता और मौलिक अधिकारों की आड़ में कानून को असहाय नही बनाया जा सकता। आज आप पूर्व को रो रहे हैं कल आप पूर्व हो जाएंगे आखिर कंधों से कंधों का यह बॉलीबॉल का खेल कब तक चलेगा?कहीं से तो सिरा पकड़ना होगा। किसी को तो शुरुवात करनी होगी। आइए एक आवाज अवैध अतिक्रमण के खिलाफ भी बुलंद करें। सरकार औऱ उसके भ्रष्ट कर्मचारियों को उत्तरदायी बनाये देश को देश बनाये स्लम्स का द्वीप नही। जो पात्र है उसकी मदद हो लेकिन जो चोर है उसे बख्शीश क्यों?

 

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अनेक समस्याओं का एक निदान । https://tirangaspeaks.com/onesolutionofallproblems/?utm_source=rss&utm_medium=rss&utm_campaign=onesolutionofallproblems Wed, 05 Feb 2025 16:48:20 +0000 https://tirangaspeaks.com/?p=100 समस्याएँ सामने आना जहां प्राकर्तिक नियम है वहीं समस्या का हल भी समस्या के आस पास ही होता है। लेकिन अक्सर हम लोग समस्या को समूल नष्ट करने और उसका हल करने के बजाय उसका अधूरा आँकलन और अस्थायी निवारण करते हैं। सर अथवा पेट में दर्द हुआ नहीं कि बस उससे आराम की गोली [...]

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समस्याएँ सामने आना जहां प्राकर्तिक नियम है वहीं समस्या का हल भी समस्या के आस पास ही होता है। लेकिन अक्सर हम लोग समस्या को समूल नष्ट करने और उसका हल करने के बजाय उसका अधूरा आँकलन और अस्थायी निवारण करते हैं। सर अथवा पेट में दर्द हुआ नहीं कि बस उससे आराम की गोली ढूँढ ली जाती है और दर्द का मूल कारण ज्यों का त्यों बना रहता है। नतीजा दर्द बार बार होता रहता है।

अपने भारत वर्ष में भी समस्याओं की कमी नहीं। जनता दुखों से त्रस्त है तो सरकार इलाज के तरह तरह के प्रयोग करती रहती है। देश को आज़ाद हुए ७५ वर्ष हो गये लेकिन कोई सरकार देश से ग़रीबी हटाने में कामयाब नहीं हो सकी। देश ने बहुत उन्नति कर ली। चारों तरफ़ सड़कों, रेलवे, पुलों का जाल, बड़े बड़े कारख़ानों से बढ़ती जी डी पी। विदेशों में डंका सब कुछ हासिल कर लिया लेकिन आज भी ८० करोड़ जनता को मुफ़्त राशन बाँटना पड़ता है। फ्री की बिजली पानी देनी पड़ती है जिसका सीधा सा अर्थ है कि आज भी देश में लगभग ८० करोड़ जनता आत्म निर्भर नहीं है। आज भी इतने लोग अवसर विहीन होकर ग़रीबों की श्रेणी में आते हैं। आख़िर ऐसा क्यों है कि सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद देश से ग़रीबी नहीं जाती। देश की बड़ी जनता के पास आज भी संसाधनों की कमी रहती है। बड़े बुजुर्ग तो यहाँ तक कहते हैं कि पहले के समय में बहुत सकूँ था , ऐसी मारा मारी नहीं थी। समस्या अपने आप में गंभीर है फिर भी इसके निदान के लिये सरकार को दोष देना उचित नहीं होगा ।

ऐसा भी नहीं कि पढ़े लिखे नागरिक और सरकार इस समस्या के मूल कारण से अनभिज्ञ हों। सरकार की हालत उस पिता जैसी है जिसके पास संसाधन सीमित हों लेकिन उसका परिवार बड़ा होकर उसकी कमर तोड़ रहा हो। जब संसाधन सीमित हों तो बढ़े खर्चे विकास को रोक देते हैं। दरअसल सारी समस्या का उल्लेख डारविन बहुत पहले कर चुके हैं। सीमित स्थान, सीमित संसाधन के चलते बढ़ती जनसंसंख्या द्वारा बेतहाशा खपत में वृद्धि। आख़िर संतुलन बिगड़ना तय है। जनसंख्या वृद्धि संसाधन वृद्धि से अधिक रहेगी तो आवश्यकताओं की पूर्ण पूर्ति नहीं हो सकती। भोजन सीमित हो तो किसी न किसी को भूखे सोना ही पड़ेगा। संसाधन बढ़ने की भी सीमा है तो कुछ को बेरोज़गार भी रहना पड़ेगा ।और आवश्यकता पूरी न हुई तो फिर संघर्ष भी अवश्यंभावी होगा। स्थान का क्षेत्रफल हम बढ़ा नहीं सकते। संसाधन भी एक सीमा से अधिक नहीं बढ़ाये जा सकते। अब एक ही उपाय बचता है कि हम अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखने के लिए जनसंख्या नियंत्रण पर विशेष ध्यान दें।

अब कहा जाएगा कि सरकार तो आज़ादी के बाद से ही जनसंख्या नियंत्रण के लिए परिवार नियोजन को प्रोत्साहित कर रही है। ठीक है ६० वर्षों तक इलाज करने के बाद भी मिली असफलता इस बात का प्रमाण है कि उपाय कारगर नहीं था। फिर क्या करें? प्रोत्साहन और निवेदन का परिणाम हम देख चुके हैं। देश की डैमोग्राफ़ी में बड़ा परिवर्तन होकर देश में ग्रह युद्ध की स्थिति तक की नौबत आ चुकी है। अब इस समस्या का एक ही निदान है और वो है कठोर जनसंख्या क़ानून। कई बार प्रजातंत्र भी दंड के बिना नहीं चलता। ऐसा कौन सा नियम क़ानून है जिसे सरकार बनाकर पालन नहीं कर सकती? लेकिन सरकार की ढुलमुल नीति और प्रयोग करने की आदत अभी भी समस्या के प्रति लापरवाहीं का संकेत कर रही है। क्यों किसी एक राज्य में प्रयोग कर विषय को टाला जा रहा है? क़ानून भी बनाया गया और फिर ढाक के तीन पात हुए तो देश से ग़रीबी, अशिक्षा और बेरोज़गारी कभी दूर नहीं होगी। स्थिति नाज़ुक है और किसी देर से भारी अपूरणीय क्षति से इंकार नहीं किया जा सकता। इसलिए निम्न प्रस्तावों के साथ केंद्र सरकार को निडरता के साथ पूरे देश में जनसंख्या नियंत्रण क़ानून लागू करना चाहिए।

१ दो से अधिक बच्चे पैदा करने वाले किसी भी नागरिक को सरकारी नौकरी, सरकारी योजनाओं के आर्थिक लाभ, कोई भी चुनाव लड़ने व मताधिकार के प्रयोग से वंचित कर देना चाहिए।

२ एकल बच्चा दंपत्ति को सरकारी नौकरी में वरीयता देनी चाहिए।

३ परिवार नियोजन का पालन करना राष्ट्रीय दायित्व घोषित कर किसी भी प्रकार का प्रलोभन न दिया जाये।

४ प्रत्येक बच्चे का १८ वर्ष तक स्कूल जाना क़ानून आवश्यक किया जाय जिसके अनुपालन की ज़िम्मेदारी माता पिता/ अभिभावक की हो और पालन न करने की स्थिति में कठोर दंड का प्रावधान किया जाये।

५ मताधिकार के लिए न्यूनतम शिक्षा हाई स्कूल की जाये। अनपढ़ लोग सरकार चुनेंगे तो सरकार भी अयोग्य चुनी जाएगी। देश शिक्षित बनेगा तो ही उन्नति करेगा।

६ इसके साथ ही हाई स्कूल तक शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा का मुफ़्त प्रबंधन हो।

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जातिवाद और क्षेत्रवाद का भेद , कथनी और करनी । https://tirangaspeaks.com/castismkesherwaad/?utm_source=rss&utm_medium=rss&utm_campaign=castismkesherwaad Wed, 05 Feb 2025 16:11:38 +0000 https://tirangaspeaks.com/?p=97   वैसे तो हमारा देश राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत नागरिकों से भरा पड़ा है लेकिन यदि उत्तराखण्ड की बात करें तो शायद यह प्रदेश देश सेवा में अग्रणी निकले। पहाड़ का शायद ही कोई परिवार होगा जिसके किसी न किसी सदस्य ने किसी न किसी सैनिक बल के माध्यम से देश की सेवा न की हो [...]

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वैसे तो हमारा देश राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत नागरिकों से भरा पड़ा है लेकिन यदि उत्तराखण्ड की बात करें तो शायद यह प्रदेश देश सेवा में अग्रणी निकले। पहाड़ का शायद ही कोई परिवार होगा जिसके किसी न किसी सदस्य ने किसी न किसी सैनिक बल के माध्यम से देश की सेवा न की हो । राजनीति की बात करें तो भी इस प्रदेश का योगदान किसी से कम नहीं । गोविंद बल्लभ पंत, हेमवतिनंदन बहुगुणा , नारायण दत्त तिवारी जैसे प्रखर नेता हमारे देश को इसी प्रदेश की देन है।

पहले ऐसा सुनने में बहुत कम आता था कि जनता और नेता किसी जाति विशेष अथवा क्षेत्र विशेष के नाम पर राजनीति करें लेकिन इधर कुछ वर्षों से इसका चलन बढ़ता जा रहा है। नेहरू सरकार ने भले ही क्षेत्र विशेष को कुछ विशेष अधिकार देकर इस राजनीति के बीज बहुत पहले ही बो दिये हों लेकिन लंबे समय तक देश ऐसी भावना को दरकिनार करता रहा । आरक्षण के नाम पर भले किसी समुदाय को मुख्य धारा से अलग रखा गया हो परंतु किसी भी समुदाय में घृणा का स्थान कभी बन नहीं पाया । धीरे धीरे देश में राजनीतिक महत्वाकांक्षा के बढ़ते नये नये छोटे राजनीतिक दलों का आगमन हुआ जिनकी राजनीतिक सोच राष्ट्र से संकुचित होकर प्रदेश तक सिमट गई और आगे जो राजनीतिक विकास हुआ उसने राजनीति का दायरा बेहद सिकोड़कर जातिगत , धार्मिक और क्षेत्र विशेष तक छोटा कर दिया ।

आज गिने चुने राजनेता हैं जो अपना राष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव रखते हैं। अन्यथा कोई मुस्लिम नेता है तो कोई दलित की राजनीति करता है। कोई खलिस्तान की बात करने में गर्व महसूस करता है तो कोई चीन पाकिस्तान को अपना माई बाप समझकर भारत की और आँखें तरेरता दिखायी देता है। जातिवाद, धर्म और क्षेत्र हमारे चुनाव जीतने के आधार बन रहे हैं । कोई साम्यवाद की बात करता है तो कोई अपने को समाजवादी कहकर गर्व का अनुभव करता है। गांधी जी , राजा राम मोहन राय, आज़ाद और भगत सिंह के आदर्शों की दुहाई देने वाले राष्ट्र को भूलकर अपनी जाति पर केंद्रित होते जा रहे हैं।आरक्षण के नाम पर अनगिनत जातीयाँ आपस में भेद भाव कर रही हैं। आश्चर्य और दुख की बात यह है कि छोटे राज्य भी अपनी ही सीमा में क्षेत्रवाद , जातिवाद और धार्मिक भेदभाव का शिकार हो रहे हैं । स्वर्ग से यह नजारा देख हमारे संविधान के निर्माता और मूल विचारक कितनी लज्जा महसूस करते होंगे जिन्होंने संविधान का आरंभ ही “हम भारत के नागरिक” से करते हुए भारत के किसी भी नागरिक को भारत में कहीं भी रहने और कारोबार करने की स्वतंत्रता दी थी । शायद ही कोई सच्चा भारतीय नागरिक होगा जो कश्मीर की इसी दशा के दुष्परिणामों से खुश होता हो। सरकार ने कश्मीर से धारा ३७० और ३५ ए हटा दी तो पूरा देश ख़ुशी से झूम उठा। स्पष्ट था कि हमारी अंतरात्मा कश्मीर की उस अलगाववादी सोच को स्वीकार नहीं कर रही थी ।

यदि आपसे कोई पूछे कि आप कहाँ के नागरिक हो तो गर्व से कहते हो “ भारत के” फिर आपका राज्य , आपका क्षेत्र और आपकी जातीय पहचान कहाँ छुप जाती है? क्या एक राज्य में रहते हुए आपका किसी दूसरे राज्य से कोई संबंध नहीं ? क्या उत्तर दक्षिण पूरब और पश्चिम के बीच कोई सीमाएँ निर्धारित हैं? जरा सोचिए , उत्तराखण्ड के जन्म की तो बात छोड़ दीजिए , आज़ादी से भी पूर्व क्या इस प्रदेश में दूसरे राज्यों के निवासी निवास एवं रोज़गार नहीं करते थे ? क्या यहाँ के निवासी दूसरे राज्यों के स्थानों पर रोज़गार की तलाश में पलायन नहीं करते थे ? क्या यह सिलसिला अब रुक गया है? राज्य की सीमाओं को सील करने, राज्य में ही दो क्षेत्रों गढ़वाल और कुमायूँ को वैचारिक स्तर पर अलग करने, ब्राह्मण और राजपूत की राजनीति करने, नागरिकों को पहाड़ी और देशी में विभक्त करने से आप कौन सी फसल उगा रहे हैं । अपने ही देश से लगभग दूर हो जाना चाहते है ? प्रदेश को और कितने टुकड़ों में बाँटना चाहते हैं। देश में हिंदू राष्ट्र और हिंदू एकता की बात करने वाले अपने ही परिवार को खोखला कर कमजोर करने पर तुले हैं ।

इतिहास देखिए और बताइए कि क्या देहरादून को बनानेवाले आचार्य द्रोण और गुरु राम राय अपने को पहाड़ी मानकर बसाने आये थे । और अन्य महापुरुषों की बात करें तो क्या उन्होंने भी ऐसा ही सोचा था ?

यह सोच केवल उत्तराखंड में पैदा हो रही हो , ऐसा बिलकुल नहीं है बल्कि पूरे देश में यही नफ़रत की फसल उगाई जा रही है। देश को एक दो नहीं हज़ारों टुकड़ों में बाँटने की साजिस अपना काम कर रही है। उत्तराखण्ड एक देवभूमि है जहां से संस्कारों की गंगा बह कर पूरे देश को पवित्र करती है। प्रदेश सांस्कृतिक रूप से देश का नेतृत्व करता है फिर ऐसा सांस्कृतिक प्रदूषण हमें कहाँ लेकर जाएगा ? जैसा मैंने पहले कहा कि इस प्रदेश का एक एक परिवार अपने भारत देश के लिए जान छिड़कता है। सेना के सर्वोच्च अधिकारी हमारे इसी प्रदेश का प्रतिनिधित्व करते हैं। एक और हम पी ओ के को भारत में मिलाने की बात करते हैं और दूसरों और ख़ुद को ही भारत से दूर कर लेना चाहते हैं ।

टी वी पर उत्तराखंड के समाचार देख सुन रहा था । दिल के कोनों में समाचार सुन अफ़सोस और दुख हो रहा था। में स्वयं ५० वर्षों से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भा ज पा ( पहले जन संघ ) से वैचारिक रूप से जुड़ा हूँ लेकिन कभी ऐसी स्थिति नहीं देखी । क्या बेटा बड़ा होकर यूँ ही बाप के ओचित्य को चुनौती देता है? यदि ऐसा है तो हम किस संस्कृति का रोना रोते हैं ? संगठन के पद हों अथवा चुनाव के प्रत्याशी , संघ और पार्टी संगठन के मतभेद खुलकर सामने आना निश्चय ही चिंता में डालने वाला है। एक अर्ध शताब्दी के बाद भारत की जनता को स्वाभिमान और अभिमान की अनुभूति हुई है। देश विश्वगुरु बनने का आकांक्षी है। यदि इस तरह के मतभेद बढ़ते रहे तो देश की बर्बादी इसी के सुपुत्रों द्वारा लिखी जाएगी ।

आइये अपने मन के भीतर झांकिये वहाँ एक सच्चा देश भक्त और देव पुरुष बैठा है। उसे पहचानिए , उसका निरादर मत करिए । वो आपकी आत्मा है उसके बिना जीवन का कोई अर्थ नहीं है। जातिवाद , क्षेत्रवाद जैसी संकुचित सोच से बाहर निकलये । कुछ बड़ा बनिये , बड़ा करिए । बड़े परिवार की महत्ता को समझये। देश ही हमारा परिवार, नगर, क्षेत्र और प्रदेश है। भारतीय हमारी नागरिकता है, सोच और संस्कृति है। यही हमारी जाति और पहचान है। जो आगे बढ़ेगा देश के लिए करेगा । देश है तो हम हैं । इसे वैचारिक, भाषाई, सांस्कृतिक , क्षेत्र और जातियों में बाँटकर कमजोर मत कीजिए ।

हमे देश में कहीं भी बसने और रहने का अधिकार है तो दूसरों को भी हमारे यहाँ उतना ही सम्मान मिलना चाहिए ।यदि उत्तराखण्ड से जाकर उत्तर प्रदेश में योगी जी देश का नाम रोशन कर सकते हैं , गुजरात से आदरणीय मोदी जी, अमित शाह , मध्यप्रदेश से शिव राज सिंह चौहान , हरियाणा के देवी लाल , दक्षिण से आदरणीय निर्मला सीता रमन , महाराष्ट्र , आसाम और कर्नाटक के अनेक नेता देश की सेवा कर सकते हैं , उत्तराखण्ड के श्री अजीत डोभाल, विपिन रावत और अन्य बहुत से नायक देश की सुरक्षा की गारंटी दे सकते हैं तो आप भी ऐसे ही चरित्रों का अनुशासनात्मक कर देश के निर्माण में अपनी भूमिका निभा सकते हैं।

 

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झूठ बोले कौआ काटे । https://tirangaspeaks.com/%e0%a4%9d%e0%a5%82%e0%a4%a0-%e0%a4%ac%e0%a5%8b%e0%a4%b2%e0%a5%87-%e0%a4%95%e0%a5%8c%e0%a4%86-%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%9f%e0%a5%87-%e0%a5%a4/?utm_source=rss&utm_medium=rss&utm_campaign=%25e0%25a4%259d%25e0%25a5%2582%25e0%25a4%25a0-%25e0%25a4%25ac%25e0%25a5%258b%25e0%25a4%25b2%25e0%25a5%2587-%25e0%25a4%2595%25e0%25a5%258c%25e0%25a4%2586-%25e0%25a4%2595%25e0%25a4%25be%25e0%25a4%259f%25e0%25a5%2587-%25e0%25a5%25a4 Mon, 27 Jan 2025 16:58:01 +0000 https://tirangaspeaks.com/?p=66 उत्तराखण्ड समान आचार संहिता लागू कर देश का ऐसा करने वाला प्रथम राज्य बन गया है। इसके लिए मुख्य मंत्री श्री पुष्कर सिंह धामी निश्चित रूप से बधाई के पात्र हैं । उत्तराखण्ड को एक अध्याय आरंभ करने का अवसर मिला और उसने यह कर दिखाया, यह कोई छोटी बात नहीं । सच्चाई तो यह [...]

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उत्तराखण्ड समान आचार संहिता लागू कर देश का ऐसा करने वाला प्रथम राज्य बन गया है। इसके लिए मुख्य मंत्री श्री पुष्कर सिंह धामी निश्चित रूप से बधाई के पात्र हैं । उत्तराखण्ड को एक अध्याय आरंभ करने का अवसर मिला और उसने यह कर दिखाया, यह कोई छोटी बात नहीं । सच्चाई तो यह है कि केंद्र को जहां यह कदम पूरे देश में उठाना चाहिए था, उसकी हिम्मत नहीं हुई । अब इसे डर कहा जाय अथवा छाछ को भी फूंक मारकर पीने की आदत। केंद् सरकार ने पूरे देश में समान नागरिक संहिता लागू न कर परोक्ष रूप से उत्तराखंड में प्रयोग कर प्रतिक्रिया जानने का प्रयोग किया है। फिर भी केंद्र की नीति के अनुसार ही सही, एक ऐतिहासिक कार्य का शुभारंभ हुआ है। बहुत दिन पहले एक गीत सुना था “ झूठ बोले कौआ काटे” समान आचार संहिता के नाम पर क़ानून लागू कर कोई कितनी भी अपनी पीठ थपथपाए लेकिन इसे किसी हसीना के साथ इशारे बाज़ी कर उसके दिल की बात जानने से ज़्यादा कुछ और नहीं समझना चाहिए । जो क़ानून सामने लाया गया है उससे सरकार की मंशा का संकेत भले ही मिलता हो लेकिन उसकी साफ़ नीयत पर संदेह तो निश्चित रूप से बनता है। क्या वास्तव में उक्त क़ानून यह साबित करता है कि सरकार धर्म निरपेक्ष, जातिनिरपेक्ष और क्षेत्र निरपेक्ष होकर शासन चलाना चाहती है? मेरी राय तो बिलकुल भिन्न है। यह एक ऐसा विषय है जिसे ऊपरी स्तर पर नहीं जड़ से समाप्त करने पर ही उपयुक्त परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं । देश के छोटे से एक राज्य में शुरुआत कर केवल बाक़ी देश को संदेश दिया जा सकता है लेकिन जब तक कोई आचार संहिता पूरे देश में लागू न हो इसे ईमानदारी का प्रयास तो बिलकुल नहीं कहा सकता है। क्या झूठ बोलकर सच्चाई छिपाई जा सकती है? शायद नहीं और कदापि नहीं । नाम रखा गया “ समान नागरिक संहिता “ जरा सोचिए क्या भारत या उसके किसी राज्य में नागरिकों को समान समझा गया है? आज भी दलित, पिछडे, अनुसूचित , बिहारी, बंगाली, पहाड़ी और देशी जैसे शब्द हमारी समानता का मुँह छिदाते नज़र आते हैं । ब्राह्मण , ठाकुर को उनकी जाति से पुकार लो तो कोई बात नहीं भले ही पुकारने का तरीक़ा कितना ही अपमानजनक क्यों न हो लेकिन वहीं कुछ नागरिक हैं जिनकी जाति का नाम लेना भी अपराध है फिर कौन सी समान आचार संहिता काम करती है? सरकार स्वयं किसी जाति को प्राथमिकता देकर संतरी से मंत्री तक बनाते समय समानता की संहिता का पालन नहीं करती । एक बुद्धिमान युवा को कम बुद्धिमान युवा के सापेक्ष अवसर नहीं मिलता , देश की सभी जातियाँ अपनी जाति और क्षेत्र के नाम पर राजकीय लाभ प्राप्त करती हैं तब समान आचार संहिता  से कौन में छिपकर बेठ जाती है ? दो चार परिस्थितियों और एक प्रदेश में समान आचार संहिता के नाम पर झूठा प्रचार करके देश के नागरिकों को समानता का अधिकार नहीं मिल सकता। जहां देश के दूसरे क्षेत्र के नागरिक को प्रदेश में प्रतिबंधित करने की तैयारी चल रही हो वहाँ समान नागरिक सहिता का मज़ाक़ बनकर रह जाएगा । हम लोग भारतीय संस्कृति की बात करते हैं , सनातन का ढिंढोरा पीटते हैं किंतु देवभूमि में लिव एंड रिलेशनशिप को क़ानूनी सहमति देते हैं । जिस लव जिहाद के विरुद्ध कठोर रुख़ अपनाते हैं वहीं समान नागरिक संहिता के नाम पर क़ानूनी संरक्षण प्रदान करते हैं।

भारतीय संस्कृति के विरुद्ध लिव एंड रिलेशन की अनुमति के क्या भयंकर परिणाम हो सकते हैं , यह सोचकर आपकी रूह काँप जाएगी । कोई बड़ी बात नहीं कि हमारी भोली भली बच्चियाँ कुँवारी माँ बनकर एकल मातापिता की संख्या को आश्चर्यजनक रूप से बढ़ा दें उस समय आप अपनी देवभूमि की देवसंस्क्रती पर रोने के अलावा कुछ नहीं कर पायेंगे। क्या इसे ही समान नागरिक संहिता कहते हैं ? यह विचार लॉइन सी समानता का द्योतक है? अगर मश्तिष्क के किसी कोने में समान नागरिक संहिता का विचार भी उपजा है तो निश्चित रूप से इसे सकारात्मक और क्रांतिकारी सोच कहा जा सकता है लेकिन इसे टुकड़ों में खिलाकर वांछित परिणाम प्राप्त नहीं हो सकतै। समान नागरिक संहिता राम राज्य की कल्पना से कम नहीं लेकिन जिस गति से इसे लागू करने की नीति चल रही है उसके लिये राम राज्य तक का इंतज़ार करना पद सकता है। समस्या का तीव्र , सटीक इलाज आवश्यक है अन्यथा बीमारी एक अंग में ठीक होगी तब तक दूसरा अंग सड़ जाएगा । क्या है उपाय ? सरकार को समान नागरिक संहिता देश में लागू करनी है तो सबसे पहले अपनी नीतियों को सभी नागरिकों के लिए समान करना होगा। छोटे छोटे जाति, क्षेत्र में बँटे नागरिकों के मन से अलगाव की भावना को समूल नष्ट करना होगा । सर्वप्रथम प्रदेश सरकारों को क्षेत्रीय भावना के वशीभूत होकर देश की संप्रभुता को प्राथमिकता देने के लिए तैयार और बाध्य करना होगा। देश से सर्वप्रथम जातिगत आधार पर चल रही शासन व्यवस्था को समाप्त कर एक समान नीति बनानी होगी । सम्मान सभी जाति और धर्म का अधिकार है।समान न्याय सबका अधिकार है और समान अवसर भी सभी नागरिकों का अधिकार है ऐसे में वर्तमान कुछ जातिगत क़ानून समाज में असमानता पैदा करते हैं जो असंतोष को जन्म देती है और असंतोष कहीं न कहीं उग्रता पैदा करता है। सब के लिये समान क़ानून और सबके लिए समान आचार संहिता तभी संभव है जब सभी नागरिकों को समान अधिकार और सम्मान प्राप्त हो। इसका तत्पर्य यह बिलकुल नहीं निकाला जाना चाहिए कि सरकार किसी पिछडे की मदद न करे अथवा किसी विकास में पिछले क्षेत्र का विकास न करे । वास्तविकता यह है कि देश की आज़ादी के ७५ वर्ष के बाद किसी नागरिक के पिछड़ेपन का आधार उसकी जाति नहीं बल्कि उसे मिल रहे अवसरों की कमी से उसका आर्थिक रूप से पिछड़ना है। आज ऐसी कोई जाति नहीं जिसमें पिछडे नागरिक  हों । सक्षम व्यक्ति न हों । यही वह ग्रुप है जो सरकार की जातिगत व्यवस्था का सर्वाधिक लाभ उठाते हैं । यही कारण है कि देश का ग़रीब ग़रीब ही बनकर रह जाता है और उसी के सक्षम साथी उससे उसके अवसर छीनकर आगे बढ़ जाते हैं। धर्म के नाम पर कटुता का खेल अपने चर्म पर है किंतु सरकार स्वयं सभी धर्मों के साथ न समान व्यवहार करती है और न ही सभी धर्म एक राष्ट्रीय आचार संहिता का पालन करते हैं। सबके लिए समान व्यवस्था होती तो किसी कट्टरता का स्थान ही नहीं बचता।

समान अधिकार और समान क़ानून होता तो देश में शरीयत , वक़्फ़ और पूजा स्थल अधिनियम और हिंदू कोड बिल जैसे क़ानूनों का कोई स्थान नहीं होता । सरकार को विचार करना चाहिए , मतभेदों और असहिष्णुनता, भेदभाव जैसी बुराइयों को मिटाना है तो छर्रे छोड़कर नहीं बड़े उपाय से काम लेना होगा। जातिगत व्यवस्था के स्थान पर आर्थिक स्थिति के पैमाने पर अपनी नीतियों का निर्धारण करना होगा। सभी जातिगत क़ानून बदलने अथवा समाप्त करने होंगे। धार्मिक आश्चर्य के नाम पर अलगाव और कट्टरता को समाप्त कर राष्ट्र धर्म को सर्वोपरि दर्जा सुनिश्चित करना होगा। तभी समान नागरिक संहिता के पवित्र उद्देश्य और लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।

 

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