समस्याएँ सामने आना जहां प्राकर्तिक नियम है वहीं समस्या का हल भी समस्या के आस पास ही होता है। लेकिन अक्सर हम लोग समस्या को समूल नष्ट करने और उसका हल करने के बजाय उसका अधूरा आँकलन और अस्थायी निवारण करते हैं। सर अथवा पेट में दर्द हुआ नहीं कि बस उससे आराम की गोली ढूँढ ली जाती है और दर्द का मूल कारण ज्यों का त्यों बना रहता है। नतीजा दर्द बार बार होता रहता है।
अपने भारत वर्ष में भी समस्याओं की कमी नहीं। जनता दुखों से त्रस्त है तो सरकार इलाज के तरह तरह के प्रयोग करती रहती है। देश को आज़ाद हुए ७५ वर्ष हो गये लेकिन कोई सरकार देश से ग़रीबी हटाने में कामयाब नहीं हो सकी। देश ने बहुत उन्नति कर ली। चारों तरफ़ सड़कों, रेलवे, पुलों का जाल, बड़े बड़े कारख़ानों से बढ़ती जी डी पी। विदेशों में डंका सब कुछ हासिल कर लिया लेकिन आज भी ८० करोड़ जनता को मुफ़्त राशन बाँटना पड़ता है। फ्री की बिजली पानी देनी पड़ती है जिसका सीधा सा अर्थ है कि आज भी देश में लगभग ८० करोड़ जनता आत्म निर्भर नहीं है। आज भी इतने लोग अवसर विहीन होकर ग़रीबों की श्रेणी में आते हैं। आख़िर ऐसा क्यों है कि सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद देश से ग़रीबी नहीं जाती। देश की बड़ी जनता के पास आज भी संसाधनों की कमी रहती है। बड़े बुजुर्ग तो यहाँ तक कहते हैं कि पहले के समय में बहुत सकूँ था , ऐसी मारा मारी नहीं थी। समस्या अपने आप में गंभीर है फिर भी इसके निदान के लिये सरकार को दोष देना उचित नहीं होगा ।
ऐसा भी नहीं कि पढ़े लिखे नागरिक और सरकार इस समस्या के मूल कारण से अनभिज्ञ हों। सरकार की हालत उस पिता जैसी है जिसके पास संसाधन सीमित हों लेकिन उसका परिवार बड़ा होकर उसकी कमर तोड़ रहा हो। जब संसाधन सीमित हों तो बढ़े खर्चे विकास को रोक देते हैं। दरअसल सारी समस्या का उल्लेख डारविन बहुत पहले कर चुके हैं। सीमित स्थान, सीमित संसाधन के चलते बढ़ती जनसंसंख्या द्वारा बेतहाशा खपत में वृद्धि। आख़िर संतुलन बिगड़ना तय है। जनसंख्या वृद्धि संसाधन वृद्धि से अधिक रहेगी तो आवश्यकताओं की पूर्ण पूर्ति नहीं हो सकती। भोजन सीमित हो तो किसी न किसी को भूखे सोना ही पड़ेगा। संसाधन बढ़ने की भी सीमा है तो कुछ को बेरोज़गार भी रहना पड़ेगा ।और आवश्यकता पूरी न हुई तो फिर संघर्ष भी अवश्यंभावी होगा। स्थान का क्षेत्रफल हम बढ़ा नहीं सकते। संसाधन भी एक सीमा से अधिक नहीं बढ़ाये जा सकते। अब एक ही उपाय बचता है कि हम अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखने के लिए जनसंख्या नियंत्रण पर विशेष ध्यान दें।
अब कहा जाएगा कि सरकार तो आज़ादी के बाद से ही जनसंख्या नियंत्रण के लिए परिवार नियोजन को प्रोत्साहित कर रही है। ठीक है ६० वर्षों तक इलाज करने के बाद भी मिली असफलता इस बात का प्रमाण है कि उपाय कारगर नहीं था। फिर क्या करें? प्रोत्साहन और निवेदन का परिणाम हम देख चुके हैं। देश की डैमोग्राफ़ी में बड़ा परिवर्तन होकर देश में ग्रह युद्ध की स्थिति तक की नौबत आ चुकी है। अब इस समस्या का एक ही निदान है और वो है कठोर जनसंख्या क़ानून। कई बार प्रजातंत्र भी दंड के बिना नहीं चलता। ऐसा कौन सा नियम क़ानून है जिसे सरकार बनाकर पालन नहीं कर सकती? लेकिन सरकार की ढुलमुल नीति और प्रयोग करने की आदत अभी भी समस्या के प्रति लापरवाहीं का संकेत कर रही है। क्यों किसी एक राज्य में प्रयोग कर विषय को टाला जा रहा है? क़ानून भी बनाया गया और फिर ढाक के तीन पात हुए तो देश से ग़रीबी, अशिक्षा और बेरोज़गारी कभी दूर नहीं होगी। स्थिति नाज़ुक है और किसी देर से भारी अपूरणीय क्षति से इंकार नहीं किया जा सकता। इसलिए निम्न प्रस्तावों के साथ केंद्र सरकार को निडरता के साथ पूरे देश में जनसंख्या नियंत्रण क़ानून लागू करना चाहिए।
१ दो से अधिक बच्चे पैदा करने वाले किसी भी नागरिक को सरकारी नौकरी, सरकारी योजनाओं के आर्थिक लाभ, कोई भी चुनाव लड़ने व मताधिकार के प्रयोग से वंचित कर देना चाहिए।
२ एकल बच्चा दंपत्ति को सरकारी नौकरी में वरीयता देनी चाहिए।
३ परिवार नियोजन का पालन करना राष्ट्रीय दायित्व घोषित कर किसी भी प्रकार का प्रलोभन न दिया जाये।
४ प्रत्येक बच्चे का १८ वर्ष तक स्कूल जाना क़ानून आवश्यक किया जाय जिसके अनुपालन की ज़िम्मेदारी माता पिता/ अभिभावक की हो और पालन न करने की स्थिति में कठोर दंड का प्रावधान किया जाये।
५ मताधिकार के लिए न्यूनतम शिक्षा हाई स्कूल की जाये। अनपढ़ लोग सरकार चुनेंगे तो सरकार भी अयोग्य चुनी जाएगी। देश शिक्षित बनेगा तो ही उन्नति करेगा।
६ इसके साथ ही हाई स्कूल तक शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा का मुफ़्त प्रबंधन हो।
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